पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११७

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१०३८ रामचरित मानस तारन तश्न हरन सब दूषन । तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन ॥५॥ श्राप दूसरों को तारनेवाले, स्वयम् त हुए और सब दोपों के हरनेवाले, तीनों लोकों के भूषण और तुलसीदास के स्वामी हैं ॥ ५ ॥ 'तारन तरन' शब्द श्लेषार्थी है अर्थात् उद्धार करनेवालों के भी उद्धारकर्ता 'श्लेष अलंकार' है । सनकादिकों के मुख से भविष्य में होनेवाली बात को वर्तमान की तरह तुलसी. बास के स्वामी कहलाना साविक अलंकार है। हो-बार बार अस्तुति करि, प्रेम सहित सिर नाइ। ब्रह्म-भवन सनकादि मे, अति अभीष्ट बर पाई ॥३॥ चार बार प्रेम सहित स्तुति करके और मस्तक नवां कर सनकादिक मुनि अत्यन्त मन- वाञ्छित वर पा कर ब्रह्मा के तोक को गये ॥ ३५ ॥ चौ०- सनकादिक विधि लोक विधाये। सातन्ह रोम-चरन सिर नायै ।। पूछत प्राहि सकल सकुचाहीं । चितवहिँ सब मारुत-सुत पाहीं ॥१॥ लनकादिक ऋषीश्वर ब्रह्मा के लोक को चले गये और भाइयों ने रामचन्द्रजी के चरणों में मस्तक नवाये । प्रभु से पूछते हुए समस्त बन्धु लकुचाते हैं, सब पवनकुमार की ओर निहारते हैं ॥१॥ तीनों भाइयों का हार्दिक अभिप्राय यह कि स्वामी को मेरी ओर से पूछने की बात प्रकट न हो, प्रश्न हनूमानजी करें। इस प्राशय से उनकी श्रोर सब का निहारना 'युक्ति अलंकार है। सुनी बहहि प्रमुख के बानी । जो सुनि होइ सकल धम हानी ॥ अन्तरजामी प्रभु सब जाना । धूझत कहहु काह हनुमाना ॥२॥ प्रभु के मुख से वह बात सुनना चाहते हैं जो सुन कर सम्पूर्ण भ्रम दूर हो । अन्तर्यामी स्वामी रामचन्द्रजी सब जान गये, उन्हों ने कहा है हनूमान ! कहो क्या पूछना चाहते हो ?॥२॥ जोरि पालि कह तब हनुमन्ता । सुनहु दीनदयाल भगवन्ता ॥ नाथ अरत कछु पूछन चहहौं । प्रस्न करत मन सकुचत अहंहीं ॥३॥ तब हाथ जोड़ कर हनुमानजी कहने लगे, हे दीनदयाल भगवान, स्वामिन् ! सुनिये, भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं परन्तु प्रश्न करते हुए मन में सकुचाते हैं ॥ ३ ॥ तुम्ह जानहु कपि मार सुमाऊ । भरतहि माहि कछु अन्तर काऊ । सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना । सुनहु नाथ प्रनतारति हरना ४॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे हनुमान ! तुम मेरे स्वभाव को जानते हो, भरत से और मुझ से कभी कुछ अन्तर है १ (कदापि नहीं) प्रभु के वचन सुन भरतजी पाँव पकड़ कर पोले-हे दीनों के दुःख हरनेवाले नाथ ! सुनिये ॥४॥