पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११८

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असम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०३९ दो-नाथ न माहि सन्देह कछु, सपनेहुँ लोक न मोह । केवल कृपा तुम्हारिहि, कृपानन्द-सन्दोह ॥३६॥ दया और अानन्द के राशि, हे नाथ ! केवल आप ही के अनुग्रह से मुझे कुछ सन्देह नहीं है और सपने में भी शोक-मोह नहीं है ॥ ३६ ॥ चौ०--करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई ॥ कै महिला रघुराई । बहु विधि बेद पुरानन्हि गाई ॥१॥ हे कृपानिधे! एक ढिठाई करता हूँ। मैं सेवक हूँ और श्राप दासों को सुख देनेवाले हैं। हे रघुराज ! सन्तों की महिमा वेद पुरानों ने बहुत तरह से गाई है ॥ १॥ श्रीमुख तुम्ह पुनि कोन्हि बड़ाई । तिन्ह पर प्रमुहि मीति अधिकाई । सुना वह प्रा तिन्ह कर लच्छन । कृपासिन्धु गुन ज्ञान बिचच्छन ॥२॥ फिर आपने श्रीमुख से घड़ाई की है और उन पर स्वामी की बड़ी प्रीति है। हे कृपा. सिन्धु, गुण और ज्ञान में प्रवीण प्रभो ! मैं उनका लक्षण सुनना चाहता हूँ ॥२॥ सन्त असन्त भेद बिलगाई । प्रनतपाल लोहि कहहु बुझाई । सन्तन्ह के लच्छन सुनु भ्राता । अगनित लुति पुरान बिख्याता ॥३॥ हे शरणागत-पाल ! सन्त और असन्तों के भेद अलगा कर मुझ से समझा कर कहिये। रामचद्जी ने कहा-हे भाई । सुनिये, सन्तों के प्रसंश्यों लक्षण वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं ॥३॥ सन्त असनतन्ह के असि करनी । जिमि कुठार चन्दन आचरनी ॥ काटइ परसु मलय सुनु भाई । निजगुन देइ सुगन्ध बसाई ॥४॥ सन्त और असन्तों की ऐसी करनी है, जैसे कुरहाड़ी पार चन्दन का व्यवहार है । हे भाई ! सुनिये, कुल्हाड़ा चन्दन को काटता है और चन्दन अपने गुण सुगन्धि से उसको सुगन्धित कर देता है ॥३॥ चन्दन का हित अनहित दोनों को समान, सुगन्ध प्रदान करना चतुर्थ तुल्ययोगिता प्रलं. दो-तातें सुर सीखन्ह बढ़त, जगवल्लभ श्रीखंड। अनल दाहि पीटत धनहि, परसु बदन यह दंड ॥३०॥ इससे चन्दन देवताओं के सिर पर बढ़ता है और संसार को प्यारा है. कुल्हाड़े का यह दण्ड (सजा) होता है कि इसके मुख को आग में जला कर हथौड़े से पीटते हैं ॥७॥ सन्त और असन्त उपमेय वाक्य, चन्दन और कुठार उपमान वाक्य है। सन्तजन चन्दन पूज्य हैं और असन्तजन कुठार दण्डनीय हैं । यद्यपि दोनों के धर्म पृथक होने पर भी एक प्रकार की समता सो जान पड़ती है। यह टम्टान्त अलंकार है। चन्दन अपने साधु गुण से A