पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/१११९

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१००० . रामचरित मानस । वन्दनीय होता है और कुल्हाड़ा.अपने दुष्ट गुण से दण्डनीय होता है। मानार्थ से. प्रथम लस अलंकार है। चौ-विश्य अलम्पट सील गुनाकर । पर दुख दुख सुख सुख देखे पर ॥ सय अभूतारिपु बिमद बिरागी । लामामरष हरष भय त्यागी ॥१॥ सन्तजन विषयी और व्यभिचारी नहीं होते, वे शील एवम् गुणों को खान पराये के दुःख से दुखी और दुसरों को सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं । समदर्शी, शत्रुरहित, निरभिमान, वैराग्यवान होते हैं, लोम, क्रोध, हर्ष और भय के त्यागी होते हैं ॥१॥ कोमल चित्त दोनन्ह पर दाया । मन बच क्रम मम भगति अमाया ॥ शुबहि, मानप्रद आघु अमानी। भरत प्रान सम मम तेइ पानी ॥२॥ कोसल चित्र, दोनों पर दया करनेवाले, मन, वचन और कम से निष्कपट मेरी भक्ति करते हैं। सब को प्रतिष्ठा देनेवाले और आप प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं रखते, हे भरत ! धे प्राणी मुझे माण के समान प्यारे हैं ॥२॥ बिगत काम मम नाम परायन । सान्ति बिरति बिनती मुदितायन । सीतलता सरलता मयत्री । द्विज-पद प्रीति धरम जनयत्रो ॥३॥ कालना रहित हमारे नाम में लवलीन रहते हैं। शान्ति, वैराग्य, नम्रता और श्रानन्द के स्थान होते हैं । शीतलता, सीधापन, मिमता से पूर्ण और धर्म को माता ग्रामण के चरणों की प्रीति हृदय में रखते हैं ॥३॥ ये सब लच्छन बसहि जासु उर । जानेहु तात , सन्त सन्तत फुर॥ सम दम नियम नीति नहिं डालहि। परुष बचन कबहूँ नहिँ बालहि ॥४॥ है तात! ये लव लक्षण जिन के उदय में बसते हैं, उनको सदा सच्चे सन्त समझना । घे सौम्यता, इन्द्रिय दमन, पुण्यवत और उचित व्यवहार से नहीं डंगमगाते, कभी कठोर वचन नहीं बोलते ॥ दो०--निन्दा अस्तुति उभय सभ, ममता मम पद का । से सज्जन अम प्रानप्रिय, गुनमन्दिर सुखपुज ॥३८ निन्दा और बड़ाई दोनों बराबर समझते हैं, मेरे धरण-कमलों में प्रेम रखते हैं घे. गुणों के मन्दिर, सुख के शि.सज्जन मुझे प्राण के समान प्रिय हैं ॥३il. चौ०-सुनहु असन्तन्ह केर सुभाऊ'। भूलेहु सङ्गति करिय न काऊ ॥ सिन्ह कर सङ्ग सदा दुखदाई । जिमि कपिलहि घालइ. हरहाई ॥१॥ अब खलों का स्वभाव सुनिये, उनको संगति कभी भूलकर भी न करनी चाहिये । उनका साथ सदा दुःख देनेवाला होता है, जैसे हरही ..गाय कपिला का भी नाश कर देती है ॥ १॥