पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ६१ सन्तत जपत सम्भु अबिनासी । सिव भगवान ज्ञान-गुन-रासी । आकर चारिजीव जग अहहीँ । कासी मरत परम-पद लहहीं ॥२॥ जिसको नित्य, कल्याणरूप; शान और गुण की राशि शङ्कर भगवान जपते हैं। चार जाति के जीव संसार में हैं, वे कोशी में भरने पर मोक्ष-पद पाते हैं ॥२॥ सोपि राम-महिमा मुनिराया। सिव उपदेस करत करि दाया ॥ राम कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिय बुझाइ कृपानिधि माही ॥३॥ हे मुनिराज ! वह निश्चय राम-नाम की महिमा है, शिवजी दया कर के (मरते समय प्राणियों को) उपदेश करते हैं। स्वामिन् ! मैं आप से पूछता हूँ रामचन्द्र कौन हैं ? दयानिधे ! मुझे समझा कर काहिए ॥ ३॥ एक राम अवधेस-कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥ नारि बिरह दुख लहेउ अपारा । भयउ रोष रन रावन मारा ॥४॥ एक रामचन्द्र अयोध्यानरेश (दशरथ) के पुत्र हैं, उनका चरित्र संसार में विख्यात है। उन्होंने स्त्री-वियोग से बड़ा दुःखे पाया, क्रोध होने पर युद्ध में रावण को मारा || दो०-प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ, जाहि जपत त्रिपुरारि । सत्यधाम सर्वज्ञ तुम्ह, कहहु बिबेक बिचारि ॥४६॥ हे प्रभो ! वही रामचन्द्र हैं जिनको शिवजी जपते हैं या वे कोई दूसरे हैं ? आप सत्य के धाम और सब जाननेवाले हैं, अपने शान से विचार कर कहिए ॥ चौ०-जैसे मिटइ माह भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी । जागबंलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहिं विदित रघुपति प्रभुताई ॥१॥ हे नाथ ! जिस प्रकार यह अज्ञान से उत्पन्न हुआ मेरा भारी भ्रम दूर हो, वह कथा विस्तारपूर्वक कहिए । याज्ञवल्क्यजी मुस्कुरा कर बोले-श्राप को रधुनाथजी की महिमा मालूम है ॥१॥ राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारि मैं जानी ॥ चाहहु सुनइ राम-गुन-गूढ़ा । कीन्हेहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा ॥२॥ आप मन, कर्म और वचन से रामभक्त हैं, श्राप की चतुराई मैं जानता हूँ। रामचन्द्रजी के छिपे हुए गुणों को श्राप सुनना चाहते हैं, इसीसे ऐसा प्रश्न करतेहैं,मानो वहुत अनजान हैं।।२।। भरद्वाजजी रामचन्द्रजी की महिमा भली भाँति जानते हैं, किन्तु उन्हें याज्ञवल्क्यजी के मुख से रामचरित सुनने की अभिलापा है, इसलिए अपनी जानकारी छिपा कर अज्ञात की तरह उन्होंने प्रश्न किया है। इसको याज्ञवल्स्यजी समझ गये और स्पष्ट कह कर उनके हार्दिक प्रेम से प्रसन्न हो रामयश वर्णन करने को उद्यत हुए।