पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२०

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। 1 सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०४१ खलन्ह हृदय अति ताप बिलेखी । जरहिं सदा पर-सम्पति देखी। जहँ कहुँ निन्दा सुनहिँ पराई । हरघहिँ मनहुँ परी निधि पाई ॥२॥ दुधों के 'मुदध में वाहत बड़ी जलन होती है कि वे सदा दूसरे का ऐश्वर्य देख कर जलते हैं। जहाँ कहीं परायी गिन्दा सुनते हैं, उस समय वे ऐसे प्रसा मालूम होते हैं माने उन्हें पड़ादा अपार धन मिल गया हो ॥२॥ काम क्रोध मद लास परायन । निर्दय कपटी कुटिल भलायन ॥ बयर अकारन सन्न काहू सों। जो कर हित अनहित साहू काम, क्रोध, मद, लेस में तत्पर, निर्दयी, कपटी, टेढ़े और पाप के घर होते हैं। सब किसी से अकारण वैर करते हैं, जो उनकी भलाई करता है वे उसको भी बुराई करते हैं ॥३॥ शूठइ लेना झूठा देना । झूठइ भोजन कूठ चमेना । बालहि मधुर बचन जिमि मारा। खाहिँ महा अहि हृदय कठीरा॥ झूठ ही लेना झूठ ही देना झूठ ही भोजन और झूठ ही चबेना है । मीठे वचन बोलते हैं, जैसे मुरैली मीठी घोली बोलता है परन्तु बड़े बड़े साँपों को खा जाता है, उनका प्य कठोर होता है | दो०-परद्रोही परहार रत, पर-धन पर अपवाद । ते नर पाँवर पाप-प्रय, देह घरे मनुजाद ॥३॥ परद्रोही परायी स्त्री में अनुरक्त, पर धनहारी और दूसरे की निन्दा करनेवाले। मनुष्य अधम, पाप के रूप, देह धारण किये हुए राक्षस हैं ॥३॥ चौ-लोभइ ओढ़न लोभइ डासन । सिस्नादर पर जसपुर त्रास न । काहू की जौँ सुनहि बड़ाई । स्वास लेहि जनु जूडो आई ॥१॥ लोभ ही ओढ़ना है और लोभ ही बिछौना है, लिहेन्द्रिय और पेट के विषय में लगे हुए उन्हें यमपुरी का डर नहीं है। यदि किसी की बड़ाई सुनते हैं तब लम्पी साँस लेते ह, ऐसा मालूम होता है मानों उनको ज.या का स्वर भागया हो। जब काहू के देखहि बिपती । सुखी अये मानहुँ जग नृपती । स्वारथ रथ परिवार बिरोधी । लम्पट काम लोम अति क्रोधी ॥२॥ जब किसी की विपत्ति देखते हैं तब सुखी होते हैं, वे ऐसे प्रसन्न मालूम होते हैं मानों जगत के राजा हो गये हो । स्वार्थ में तत्पर, कुटुम्पियों के बैरी, व्यभिचारी, कामी, तोमी और अत्यन्त क्रोधी होते हैं ॥२॥ मातु पिता. गुरु बिग्रन मानहिँ । आपु गये अरु घालहिँ ओनहिँ । भावा ॥३॥ करहि माह बस वोह परावा । सन्त सङ्ग हरिकथा न माता-पिता गुरु और ब्राह्मण को नहीं मानते, श्राप तो गये पीते हैं ही और दूसमें