पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०४२ रामचरितमानस। को भी नष्ट करते हैं। शान वश पराये को द्रोह करते हैं, उन्हें सन्तों की सङ्गति और भगवान की कथा नहीं अच्छी लगती ॥३॥ अवगुन-सिन्धु सन्द मति कामी । वेद विदूषक परधन स्वामो ॥ बिप्रदोह तुरद्रोह बिसेषा । दम्भ कपट जिय धरे सुबेषा ॥४॥ अवगुण के समुद्र, नीचबुद्धि, कामी, वेद के निन्दक, पराये धन के मालिक (हरनेवाले ) होते हैं। अधिकांश बालयों का पैर करते और देवताओं के विरोधी होते हैं, मन मैं पाखण्ड तथा धेोस्नेबाज़ी भरी रहती है, किन्तु वेष सुन्दर धारण किये रहते हैं ॥४॥ दो०-ऐसे अधम मनुज खल, कृतजुग त्रेता नाहिं। द्वापर कछुक बन्द बहु, हाइहहिं कलिजुग माहिं ॥४०॥ ऐले अधम दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में कुछ एक ( थोड़े) और कलियुग में बहुत से झुण्ड के झुण्ड होंगे ॥४०॥ चौक-पर-हित सरिस धर्म नहि माई । पर-पीड़ा सम नहि अधमाई ॥ निरनय सक्कल पुगन बेदकर । कहेउँ तात जानहि कोबिद नर ॥१॥ हे भाई ! दूसरे फी भलाई करने के समान धर्म नहीं और पराये को पीड़ा देने के वरावर पाप नहीं है । सम्पूर्ण वेद और पुराणों का यह निर्णय हे, हे तात ! इसको विद्वान लोग जानते हैं ॥१॥ किली कवि का कथन है कि-" अष्टादशपुराणानाम् व्यासस्य वचन दयम् । परोपकार पुण्याय पापाय पर पीडनम् ।। नर सरीर धरि जे पर पोरा । करहिं. ते सहहिं महा भव भीरा ॥ करहि मोह अस नर अघ नाना । स्वारथरत परलोक नसाना ॥२॥ मनुष्य शरीर धारण कर जो दूसरे को पीड़ित करते हैं, वे वहुत बड़ा संसारी भय सहते हैं । अज्ञान वश मनुष्य अनेक प्रकार के पाप करते हैं, स्वार्थ में लगे रहने से उनका परलोक नाश हो जाता है ॥२॥ काल रूप तिन्ह कह मैं पाता । सुभ अरु असुभ करम फल दाता ॥ अस बिचारि जे परम सयाने । अजहिँ मेाहि संसृत दुख जाने ॥३॥ हे भाई! मैं उनके लिये काल रूप हो कर शुभ और अशुभ कर्मों का फल देता हूँ। ऐसा विचार कर और संसार के कष्टों को समझ कर जो अत्यन्त चतुर हैं वे मुझे भजते हैं ॥३॥ त्योहँ करम सुभासुभ-दायक । भजहिँ माहि सुर नर मुनिनायक ।। सन्त असन्तन्ह के गुन भाखे । ते न परहि भव जिन्ह लखि राखे ॥४॥ इसी से शुभाशुभ फल देनेवाले कर्मों को त्याग कर देवता मनुष्य और मुनिनायक मुझे भजते हैं । मैं ने सन्त और असन्तों के गुण कहे, जिन्हों ने इसे जान रक्खा है वे संसार में नहीं गिरते ॥४॥