पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२३

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. १०४४ रामचरित मानस । निवासी सब पाये । छोटे भाई, मुनि और सज्जनों के सहित सभा में बैठे, भकों के भय को. नसानेवाले वचन बोले ॥१॥ सुनहु सकल पुरजल मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी । नहिँ अनीति नहि कछु प्रभुताई । सुनहु करहु जौं तुम्हहिँ सुहाई ॥२॥ हे सम्पूर्ण पुरजनों ! मेरी बात ये सुनिये, मैं हदय में कुछ अभिमान वा कर नहीं कहा ता हूँ । म अनीति कहता हूँ और न (राजा होने के कारण अपनी) कुछ बड़ाई करता हूँ, सुनिये और यदि आप लोगों को अच्छा लगे ते। उसको करिये ॥२॥ साइ लेव प्रियतम मन लाई । मम अनुसासन मानइ जाई । जौँ अनीति कछु भाषउँ पाई । तौ माहि घरजहु मय बिसराई ॥३॥ वही मेरा लेवक और वही प्यारा है जो मेरी श्राशा को मानेगा। भाइयो! यदि मैं कुछ नन्याय की बात कहूँ तो भय भुला कर मुझे मना करो ॥॥ बड़े भाग मानुष तनु पावा । सुरदुर्लम सब ग्रन्थहि . गावा- ॥ साधन-धाम माच्छु कर द्वारा । पाइ न जेहि परलोक सँवारा ॥४॥ मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिला है, सब ग्रन्थों ने कहा है कि यह देवताओं को.दुर्लभ है। साधनों का स्थान और मोक्ष का दरवाज़ा है, इसको पा कर जिसने अपना परलोक नहीं.सुधारा! हो-खो परन्त्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताइ । कालहि कहि ईश्वरहि, मिथया दोस लगाइ. ॥४३॥ वह परलोक में दुःख पाता है और सिर पीट पीट कर पछताता है। झूठ ही काल को, कर्म को और ईश्वर को दोष लगाता है ॥४३॥ चौ० एहि तन कर फल विषय न माई । स्वरगड स्वल्प अन्त दुखदाई ॥ नर तनु पाइ बिषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ बिष लेही ॥१॥ हे भाइयों । इस शरीर का फल विषयं नहीं है, उसमें स्वर्ग का भी मुन्न हो तो भी .. थोड़ा और अन्त में दुःख देनेवाला है। मनुष्य देह पा कर जो विषय में मन लगाते हैं, वे मूर्ख अमृत को लौटा कर बदले में विष लेते हैं ॥१॥ मनुष्य शरीर. पा कर विषयों में मन लगाना उपमेय वाक्य है, अमृत देकर बदले में विष लेना उपमान वाक्य है। विना वावकपद के दोनो में समता का विम्म प्रतिबिम्ब भाव झलकना 'दृष्टान्त अलंकार है और अमृत देकर विष लेना परिवृत' दोती की संसृष्टि है। तत्वानुसन्धान द्वारा विषय को विष निश्चित करना मति 'लबारीभाव है। ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई । गुजा ग्रहइ. परसमनि खाई ।। आकर चारि लच्छ चौरासी । जानि भमत यह जिव अबिनासी॥२॥ उसको कभी कोई अच्छा नहीं कहता. जो पारसमणि खो कर धुंधची ग्रहण करता है।