पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२५

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१०४६ रामचरित मानसा बिना सत्सङ्ग के सक्ति नहीं मिलती, विना पुण्यराशि के सन्तों का सा नहीं और बिना सत्सङ्गति के संसार का अन्त नहीं होता । कारण से कार्य प्रकट होकर फिर कारण हो जाना 'कारणमाला अलंकार है। पुन्य एक जग महँ नहिँ दूजा । मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥ सानुकूल तेहि पर मुनि देवा । जो तजि कपट करइ द्विज सेवा ॥४॥ एक पुण्य के समान संसार में दूसरा पुण्य नहीं कि मन, कम और वचन से ब्राह्मण के चरणों की सेवा करना । उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं जो छल छोड़ कर ब्राह्मण की सेवा करता है ॥ ४॥ दो-औरउ एक गुपुत-बत, सहि कहउँ कर जोरि । सङ्कर भजन बिना नर, भगति न पावइ मारि ॥४॥ और भी एक गुप्त मत मैं हाथ जोड़ कर सब से कहता हूँ कि शङ्कर के भजन के बिना मनुष्य मेरी भक्ति को नहीं पाते ॥ ४५ ॥ चौ०-कहहु लगतिपथ कवन प्रयासा। जोग.न मख जप तप उपवासा ॥ सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथाला सन्तोष सदाई ॥१॥ फाहिये, भकिमार्ग में कौन परिश्रम है ? न योग, न यक्ष, न जप, न तप भार न उपवास करना पड़ता है। सीधा स्वभाव, मन में कुटिलता नहीं और लाभ के अनुसार सदा ही सन्तोष रमले ॥१॥ भार दास कहाइ नर आसा । करह त कहहु कहा बिस्वासा । बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥२॥ मेरा काल कहा कर मनुष्य की आशा करे तो कहिये, फिर मेरा विश्वास कैसा ? बहुत बढ़ा कर कौन कथा कहूँ, हे भाइयो ! मैं इस आधरण के वश में हैं ॥२॥ बयर न बिग्रह आस न त्रासा । सुखमय ताहि सदा सब आसा ॥ अनारमा अनिकेत अमानी । अनघ अरोष दच्छ विज्ञानी ॥३॥ न किसी से बैर, न झगड़ा, न भाशा, न घास रखते हैं, उनके लिये सब दिशाए सुख से भरी रहती हैं। अनुष्ठान रहित, विना घर के, निरभिमान, निष्पाप, क्रोध हीन, चतुर और विज्ञानी होते हैं॥३॥ प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। हन सम विषय स्वर्ग अपवर्गा॥ भगति पच्छ हठ नहि सठताई । दुष्टतर्क सब दूरि बहाई ॥४॥ जिनकी सदा सज्जनों के साथ प्रीति रहती है, विषय-मुख, स्वर्ग और मोक्ष को तृप के समान तुच्छ मानते हैं । भक्तिपक्ष का हक रहता है किन्तु दुर्जनता नहीं, वे दुध तर्कनाओं को दूर बहाये रहते हैं. ४