पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११२७

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. १०४८ रामचरित मानस । चौ०--एक धार बलिष्ठ मुनि आये । जहाँ राम सुखधाम सुहाये ॥ अति आदर रघुनायक कीन्हा । पद पखौरि चरनोदक लीन्हा ।। जहाँ सुन्दर सुख के धाम रामचन्द्रजी हैं, वहाँ एक बार वशिष्ठ मुनि आये । रघुनाथनी ने उनका पड़ा शादर सत्कार किया और पाँव धो कर चरणामृत लिया ॥१॥ रोल सुनहु मुनि कह कर जोरी । कृपासिन्धु बिनती कछु मारी। देखि देखि आचरन तुम्हारा । होत माह मम हृदय अपारा ॥२॥ सुनि हाथ जोड़ कर कहते हैं-हे. कृपासिन्धु रामचन्द्रजी! मेरी कुछ विनती सुनिये । श्राप के आचरण को देख देख कर मेरे हृदय में अपार माह देता है ॥२॥ महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भाँति कहउँ अगवाना ॥ उपरोहिती-कर्म अति मन्दा । बेद पुरान स्मृति कर निन्दा ॥३॥ हे भगवन् ! श्राप की बहुत बड़ी महिमा को वेद नहीं जानते, फिर मैं किस तरह कह सकता हूँ । पुरोहिती का काम महा नीच है, वेद पुराण और स्मृतियाँ निन्दा करती हैं ।। ३ ।। उपरोहित्य कर्म बड़ा नीच है, इसका प्रमाण वेद पुराण स्मृति आदि के कथन से देना 'शब्दप्रमाण अलंकार है। जब न लेउँ मैं तब विधि माही। कहा लाभ आगे. सुत ताही ॥ परमातमा बल्ल ना रूपा । होइहि रघुकुल-भूषन भूपा ॥४॥ जब मैं नहीं स्वीकार करता था, तद ब्रह्माजी ने मुझ से कहाँ-हे पुत्र ! तुझे आगे लाम होगा। परब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुवंरी के भूषण राजा होंगे.॥४॥ दो०-तब मैं हृदय, विचारा, जोग जज्ञ जज्ञ ब्रत दान। . जा कह करिया सोपाइहउँ, धर्म न एहि सम आन ॥४॥ में विचार किया कि योग, यज्ञ, व्रत, दान आदि जिसके लिये करता हूँ उनको पाऊँगा..इसके समान दूसरा धर्म नहीं है ॥ ४ ॥ उपरोहिती कर्म न एवीकार करने योग्य कर्म है, ईश्वर-प्राप्ति रूपी गुण देख कर उसकी इच्छा करना 'श्रनुज्ञा अलंकार, है। चौ-जप तप नियम जोग निजधर्मा । खुतिसम्भव नाना सुभ कर्मा । ज्ञान दया दम तीरथ-मज्जन। जहँ लगि धरम कहत खुति सज्जन॥१॥ जप, तप, नियम, योग, अपना धर्म: श्रुतियों से उत्पन्न नाना प्रकार के शुभकर्म, शान, दया, इन्द्रिय दमन, तीर्थस्नान आदि जहाँ तक धर्म वेद और सज्जन कहते हैं ॥१॥ आगम निगम पुरान अनेका । पढ़े सुने. कर फल प्रभु एका ॥ तब पद पङ्कज प्रीति निरन्तर । सब साधन कर यह फल सुन्दर ॥२॥ हे प्रभो ! अनेक शास्त्र, वेद तथा पुराणों के पढ़ने और सुनने का एक ही फल है कि आप के चरण कमलों में अन्तर रहित प्रीति हो, ससाधनों का.यह सुन्दर फल है ।२॥. तब मैंने