पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३१

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१०५२ रामचरित मानस । वह पूछो। इस शुभकथा को सुन कर पार्वतीजी प्रसन्न हुई और अत्यन्त नम्रता से कोमल वाणी में पोलीं ॥४॥ धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव-भय हारी ॥५॥ हे त्रिपुर के वैरी । मैं धन्य हूँ, धन्य हूँ, धन्य हूँ जो संसार-सम्बन्धी मयों का हरनेवाला रामचन्द्रजी के गुणानुवाद को सुना ॥ ५ ॥ पार्वतीजी अपने को धन्य मानती हैं, जिससे रामयश की अतिशय प्रशंसा व्यजित होना व्यङ्ग है। दो-तुम्हरी कृपा कृपायतन, अब कृतकृत्य न मोह । जानउँ रामप्रताप प्रभु चिदानन्द-सन्दोह ॥ हे दयानिधान ! श्राप की कृपा से मेरा मनोरथ पूरा हो गया, अब मुझे अज्ञान नहीं है। स्वामिन् ! चैतन्य रूप श्रानन्द के राशि रामचन्द्रजी के प्रताप को मैं ने जाना। लाथ तवानन ससि सवत, कथा सुधा रघुधीर । लवन पुटन्हि बन पान करि, नहिँ अघात मति-धीरं ॥५२॥

  • हे नाथ ! आप के मुख कपी चन्द्रमा से रघुनाथजी का यश रूपी अमृत बह रहा है । हे .

घरि बुद्धि ! कान रूपी दोनों से पान करके मेरा मन तृप्त नहीं होता है ॥ १२ ॥ चौ०-रामचरित जे सुनत अघाही। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥ जीवनमुक्त महामुनि जेऊ । हरि गुन सुनहिँ निरन्तर तेऊ॥१॥ रामचन्द्रजी का चरित्र सुनते हुए जो अधा जाते हैं, उन्हों ने इसके विशेष प्रानन्द को नहीं जाना । जो जीवन्मुक्त, महा मुनि हैं, वे भी भगवान के गुण को सदा सुनते हैं ॥१॥ भवसागर वह पार जो पावा । रामकथा ताकहँ टढ़ नावा॥ विषयिन्ह कहँ पुनि हरि-गुन-ग्रामा। सवन सुखद अरु मन अभिरामा॥२॥ जो संसार रूपी समुद्र से पार पाना चाहता हो, उसके लिये रामचन्द्रजी की कथा मज- बूत नौका रूपिणी है । फिर विषयी प्राणियों को भगवान का यश-समूह कानों को सुख और मन को श्रानन्द देनेवाला है ॥२॥ सवनवन्त अस को जग माहौँ । जाहि न रघुपति चरित साहाहीं ॥ ते जड़ जीव निजात्मक-धाती। जिन्हहि न रघुपति कथा सुहाती॥३॥ संसार में कानवाला ऐसा कौन है ? जिसको रघुनाथजी के चरित न सुहाते हो । वे मूर्ख जीव अपनी आत्मा के घात करनेवाले हैं जिन्हें रामचन्द्रजी की कथा नहीं अच्छी लगती ॥३॥