पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३२

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. सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०५३ हरिश्चरित्रमानस तुम्ह गावा । सुनि मैं नाथ अमित सुख पाना । तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई। कागजुसुंडि गरुड़ प्रति गाई un हे नाथ! आपने रामचरितमानस का गान किया, उसको सुन कर मैं ने अपार धानन्द पाया। आपने जो इस सुदावनी कथा को यह कही है कि कागभुशुण्ड ने गरुड़ के प्रति गाई दो०-बिरति ज्ञान विज्ञान दृढ़, रामचरित अति नेह । बायस तन रघुपत्ति भगति, माहि परम सन्देह ॥५३॥ ग्य, मान और विज्ञान में पढ़ता, रामचन्द्र जी के चरित्र में अत्यन्त स्नेह, कौए का शरीर उसमें रघुनाथजी की भक्ति ! (ईश्वर-करणों में प्रेम होना, इसका मुझे बहुत बड़ा सन्देह है ॥ ५३॥ कहाँ वैराग्य, शान, विज्ञान, की दवा, रामचरित में स्नेह और रघुनाथजी की दुर्लभ भकि, कहाँ कौए का शरीर । इस अनमेल में प्रथम विषम अलंकार' है। चौ०-नर सहल महँ सुनहु पुरारी । कोड एक होइ घरम-नत-धारी ॥ धर्मसील कोटिक महँ कोई । विषय धिमुख बिराग रत हाई ॥१॥ हे त्रिपुरारि । सुनिये, सहलो मनुष्यों में कोई एक धर्म व्रत के धारण करनेवाले होते हैं। उन करोड़ो धर्मात्माओं में कोई एक विषय ले फिरे हुए और वैराज्य में उत्पर होते हैं ॥१॥ कोटि विरक्त मध्य खुति सहई । सम्यकज्ञान सकुल कोड लहई । ज्ञानवन्त कोटिक मह कोऊ । जीवनमुक्त सहत जग सेऊ ॥२॥ चेट् कहता है उन करोड वैराग्यवानों में कोई एक पथार्थवान पाते हैं। उन फरोड़ हानियों में कोई एक संसार में जीवन्मुक्त होते हैं। तिन्ह सहस्र महँ सब सुख खानी । दुर्लभ ब्रह्म-लीन विज्ञानी ॥ धर्मसील विरक्त अरु ज्ञानी । जीवनमुक्त ब्रा पर मानी ॥३॥ उन हज़ारों जीवन्मुक्तों में सब सुखों की राशि प्रा लीन विज्ञानी होना दुर्लभ है। धर्मात्मा, वैराग्यवान, ज्ञानी, जीवन्मुक्त और बलनिच्छ विशामी प्राणियों में ॥३॥ सब तें सो दुर्लभ सुरराया। रामगति रत गत मद माया ॥ सो हरिभगति काग किमि पाई। बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई Agn हे सरराज ! सब से वह दुर्लभ है जो छल और अभिमान से रहित रामचन्द्रजी की भक्ति में लगे रहते हैं। ऐसी अनुपम हरिभक्ति कार ने किस तरह पाई, हे विश्वनाथ ! मुझे समझो कर कहिये || ।