पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११३३

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१०५४ रामचरित मानस । दो०-राम परायल ज्ञानरत, गुनागार मतिधीर । नाथ कहहु केहि कारल, पायेउ काग सरीर ॥५४॥ रामचन्द्रजी में प्रेम करनेवाले, शान में तत्पर, गुणों के स्थान श्रीर धोग बुद्धि हैं । हे नाथ! कहिये, उन्होंने कौए का शरीर किस कारण पाया ? ॥५॥ चौ०-यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा । कहहु कृपाल काग कह पावा ॥ तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥१॥ हे कृपालु ! प्रभु रामचन्द्रजी का यह सुहावना पवित्र यश कहिये, कौए ने कहाँ पाया ? हे कामदेव के वैरी ! कहिये, आपने किस तरह सुना (उस समय मैं साथ न थी) इसका मुझे बहुत बड़ा आश्चर्य है ॥१॥ गरुड़ महाज्ञनी [नरासी । हरि सेवक अति निकट निवासी ॥ तेहि केहि हेतु कोग सन जाई । सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥२॥ गरुड़ पड़े ज्ञानी, गुण के राशि, हरिभक्त और भगवान के अत्यन्त समीप में रहनेवाले हैं। उन्हों ने किस कारण मुनियों के समुदाय को छोड़ कर पास जा कर कौए से हरिकथा सुनी ॥२॥ कहहु कचन्द बिधि मा सम्बादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा । गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर 'सुख पाई ॥३॥ कहिये, काग और गरुड़ दोनों हारभको का सम्बाद किस तरह हुधा ? पार्वतीजी की सीधी सुहावनी वाणी सुन कर शिवजी आनन्दित हो कर आवर के साथ बोले ॥३॥ यहाँ पार्वतीजी ने छे प्रश्न कियो, यथा-"(१) ऐसे महात्मा गुणराशि रामभक्त को कौए की देह क्या मिली। (२) दुर्लभ. रामभक्ति को कौए ने कैसे पाया ?। (३)आपने कागभुशुण्ड से यह कथा कैसे श्रवण की १ (४) गरुड़ ने फिल कारण कौए के पास जा कर कथा सुनी ? (५) दोन हरिभक्तों का सम्बाद किस प्रकार हुआ?। (६) भगवान के इस चरित्र को कौए ने कहाँ पाया ?" धन्य सती पावनि मति तोरी । रघुपति-चरन प्रीतिं नहिँ थोरी॥ सुनहु परम पुनीत इतिहासा । जो सुनि सकल सोक श्रम नासा ॥४॥ हे सती ! तू धन्य है, तेरी बुद्धि पवित्र है. और रघुनाथजी के चरणों में बहुत बड़ी प्रीति है। वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जो सुन कर समस्त शोक और भ्रम नाश होगा || उपजइ रामचरन चिस्वासा। भवनिधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥५॥ रामचन्द्रजी के चरणों में विश्वास उत्पन होगा और विना परिभम ही मनग्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जायगे ॥५॥