पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ६३ तेहि अवसर मञ्जन महिमारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥ पितो बचन तजि राज उदासी । दंडकबन बिचरत अबिनासी ॥४॥ उसी समय पृथ्वी का भार दूर करने के लिए विष्णु भगवान् ने रघुकुल में जन्म लिया था। वे अविनाशी परमात्मा, पिता का श्राशा मान कर राज्य को त्याग उदासीन होकर दण्डकारण्य में विचरण करते थे ॥४॥ दो०-हृदय विचारत जात हर, केहि विधि दरसन होइ । गुपुत-रूप अवतरेउ प्रभु, गये जान सब कोई ॥ शिवजी मन में विचारते जाते हैं कि किस प्रकार से दर्शन हो, प्रभु रामचन्द्रजी ने गुप्त रूप से ( महत्व छिपा फर) जन्म लिया है, मेरे समीप जाने से उन्हें सब कोई जान जायेंगे। शिवजी का मन में शङ्का निवारणार्थ-विचार करना कि समीप जाऊँगा तो स्वामी को इच्छा के विपरीत कार्य होगा और नहीं जाऊँगातो दर्शन न होगा 'वितर्क सञ्चारीभाव' है। सो०-सङ्कर उर अतिछाम, सती न जानइ मरम साइ । तुलसी दरसन लोभ, मन डर लोचन लालची ॥४॥ शिवजी के मन में बड़ी खलबली उत्पन्न हुई, परन्तु इस भेद को सतीजी नहीं जान सकी। तुलसीदासजी कहते हैं कि शङ्करजी ( समीप जाने से मन में उरते हैं। किन्तु दर्शन के लोभी ने लालच में फंसे हैं ॥४॥ पास में श्राकर दर्शन न होना बड़ी हानि है और समीय जा कर दण्ड प्रणाम करने से राक्षसे उन्हें पहचान लेंगे तो स्वामी का कार्य बिगड़ जायगा । इस असमञ्जस में पड़ कर न आगे जा सकते हैं और न परिचय के साथ दर्शन ही कर सकते हैं । पर सती इस रहस्य को नहीं जानती। चौ०-रावन मरन मनुज कर जाँचा । प्राबिधि बचन कीन्ह वह साँचा ॥ जौँ नहिँ जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचार न बनत बनावा ॥१॥ रावण ने मरण का वर मनुष्य के हाथ से मांगा है, प्रभु रामचन्द्रजी ब्रह्मा की बात सच्ची करना चाहते हैं। यदि न जाऊँ त पश्चात्ताप बना रहेगा, इस तरह विचार करते हैं, पर कोई बात ठीक नहीं ठहरती है ॥१॥ एहि बिधि भये सोचबस ईसा । तेही समय जाइ दससीसा । लीन्ह नीच मारीचहि सङ्गा । भयउ तुरत से कपट-कुरङ्गा ॥२॥ इस प्रकार शिवजी सोच के वश में हुए, उसी समय नीच रावण ने जा कर मारीच को साथ लिया और वह तुरन्त कपट का मृग बना ॥२॥ .