पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४०

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सप्तम सोपानं, उत्तरकाण्ड । १०६१ थजी की कृपा से मुझे ज्ञात हो गया था। गहड़ कमी अभिमान किये होंगे, कृपानिधान राम- चन्द्रजी उस दर्प को नष्ट करना चाहते हैं ॥ ४॥ एक धार गरुड़जी देवयोग से कागभुशुपडजी के स्थान में जो पहुंचे । कागमुशुण्ड ने पक्षियों के सहित पक्षिराज का आदर सत्कार करके बैठने को शासन विणण! गरुष्ट के हदय में अमिमान से विपरीत विचार उत्पन्न हुआ कि जिस समाज का नेता कौना है, उस मण्डली में मेरा बैठना योग्य नहीं है। ऐसा विचार कोष का निरस्कार कर चल दिये। भगवान को गाड़ को यह बात अच्छी नहीं लगी, अपने भक्त के अनादर से वे नष्ट हो गये और माया को प्राशा दी, उसने मोह उत्पन्न कर गरुड़ को वहाँ पहुँचाया जहाँ से वे भीषण धमण्ड कर उस समाज को तुच्छ विचार फर चल दिये थे। कछु तेहि ते पुनि मैं नहि राखा । समुझइ ख खग हो के भाखा ॥ प्रभु माया बलवन्त अज्ञानी । जाहि न मोह कवन अस झानी ॥५॥ फिर उनको मैं में इसलिये नहीं रखा कि पक्षी पक्षी ही को बोली समझते हैं। हे भवानी ! प्रभु रामचन्द्र जी को माया पड़ो पलती है, ऐसा कौन शान है जिसको उसने मोहित न किया हो॥५॥ पहले शिवजी ने कहा कि गाड़ कभी अभिमान किये होंगे, उसको पनिधान नष्ट करना चाहते हैं। फिर मा वाक्य की भांति लोकोक्ति कहना कि पक्षी ही पक्षो की भाषा सम. झने हैं, इसलिये नहीं रखता 'कोक्ति अलंकार' है। दे०-ज्ञानी मक्त-सिंगपनि, त्रिभुवनपति कर जान । ताहि माह माया नर, पाँवर कहि शुमान । हानी, भक्तों के शिरमाण और त्रिभुवननाथ के वाहन, उनी भाषा ने मोहित किया और मधम मनुष्य शुमान करते हैं ( वे किस गिनती में हैं ? )। अब त्रिलोकीनाथ के वाहन, ज्ञानी और भको के मुकुटमणि गरुड़जी माह को प्राप्त हुए, तब नीच मनुष्य क्या गुमान करते हैं ? वे मोहे मोहाये हैं 'काव्यार्थापखि अलंकार है। सिव बिजि कहँ मोहइ, को हइ बपुरा आन। अस जिय जानि भजाहिँ मुनि, मायापति भगवान ॥२॥ तुलसीदासजी कहते हैं- जो माया शिवजी और बाजो को मोहित कर देती है, फिर उसके सामने दूसरा बेचारा कौन चीज़ है ? ऐसा मन में समझ कर मुनि लोग माया के स्वामी भगवान रामचन्द्रजी को भजते हैं। ६२॥ मायानाथ की सेवा करने से माया न सतावेगी, यह व्यहार्थ पायार्थ के परावर 'तुल्य. प्रधान गुणीभूत व्यन है। 10-गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडी। मति अकुंठ हरि भगति अखंडी। देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ । माया मोह सोच सम गयऊ ॥१॥ भविधिन हरिभक्ति भौर चोली बुद्धिवाले कागभुशुण्डि जहाँ रहते हैं, वहाँ गरुड़ गये।