पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४१

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१०६२ रामचरित-मानस । उस पर्वत को देख कर मन में प्रसभ हुए, उनके हृदय से माया, मांह और सोच संघ चला गया॥१॥ करि पूजा थोड़े ही श्रारम्भ से अर्थात् पर्वत को देखते ही अलभ्य लाभ माया, मोह, सोच का छूट जाना वर्णन 'द्वितीय विशेष अलंकार' है। गुटका में तुकान्त 'भुसुंडा और अखंडार है। यहाँ गजी नीलपर्वत पर पहुँच गये, अब उधर फागभुशुंडजी का हाल कहते हैं। करि तड़ान मज्जन जल पाना । बट तर गयउ हृदय हरषाना ॥ बद्ध , बुद्ध विहङ्ग तहँ आये । सुनइ राम के चरित सुहाये ॥२॥ कागभुशुण्डजी तालाब में स्नान और जलपान करके प्रसन्न मन से घरगद के नीचे गये। वहाँ बूढ़े बूढ़े पक्षी सुन्दर रामचन्द्रजी को कथा सुनने के लिये भाये ॥२॥ कथा अरन करइ सोइ चाहा । तेही समय गयउ खगनाहा ॥ आवत देखि. सकल खगराजा । हरषेउ बायस सहित समाजा ॥३॥ वह कथा प्रारम्भ ही करना चाहता था कि उसी समय गरुड़जी वहाँ गये। पक्षिराज को आते देख कर कागभुशुण्ड सम्पूर्ण समाज के सहित प्रसन्न हुए ॥३॥ अति आदर खगपति कर कीन्हा । स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥ समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ.कागा ॥४॥ । उन्हो ने खगनाथ का बड़ा आदर किया और कुशल क्षेम पूछ कर सुन्दर भासन दिया। प्रेम सहित पूजन करके तब कागभुशुण्ड मीठे वचन बोले ॥४॥ दो-लाथ छत्तारथ भयउँ मैं, तव दरसन खगराज । आयस्तु देहु सो करउँ अब, प्रभु आयहु केहि काज ॥ हे नाथ, खगराज ! श्राप के दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ, स्वामी का आगमन किस काय्य के लिये हुवा है ? आज्ञा दीजिये अब मैं उसे कम। सदा कृतास्थ रूप तुम्ह, कह मृदु बचन खगेस । जेहि के अस्तुति सादर, निज मुख कीन्ह महेस ॥६३॥ गरुड़जी ने कोमल वाणी से कहा-आप सदा कृतार्थरूप हैं, जिनकी प्रशंसा मादर के साथ अपने मुख से शिवजी ने की है ! ॥३॥ चौ०-सुनहु तातजेहिकारनआयउँ । सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥ देखि परम पावनतव आत्रम । गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥१॥ हे सात ! सुनिये, जिस कारण मैं आया वह सब पूरा हुआ और श्राप का दशन पाया। श्राप के अत्यन्त पुनीत आश्रम को देख कर नाना प्रकार का भ्रम, सन्देह और अंबान मेरे हृदय से भाग गया (अब मुझे मोह जनित भ्रान्ति नहीं है) ॥१॥ कागभुशुण्डजी से भेंट होने के पहले ही माया मोह का छूटना अर्थात् कारण से पहले ही कार्य का प्रकट होना अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकार है।