पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०६३ अब श्रीराम कथा अति पावनि । सदा सुखद दुख पुउज नसावनि ॥ सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ॥२॥ भय श्रीरामचन्द्रजी फी अत्यन्त पवित्र सदा सुख देनेवाली और दुःख की राशि नसाने- वाली कथा, हे तात ! भादर के साथ मुझे सुनाइये । प्रभो ! मैं बार बार भाप ले प्रार्थना करता हूँ ॥२॥ सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता । सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥ भयउ तासु मन परम उछाहा । लाग कहइ रघुपति गुन गाहा । सीधी, सुन्दर प्रेमयुक्त, सुख देनेवाली, अत्यन्त पवित्र और नम्रता भरी गरुड़ की वाणी सुनते ही उसके मन में बड़ा उत्साह हुमा, रघुनाथजी को गुणौ का वृत्तान्त कहने लगा ॥३॥ प्रथमहि अति अनुराग भवानी । रामचरित-सर कहेसि बखानी । पुनि नारद कर माह अपारा । कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥४॥ शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! पहले बड़े प्रेम से रामचरितमानस को बखान कर कहा। फिर नारद का अपार माह कह कर तदनन्तर रावण का जन्म वर्णन किया ॥४॥ प्रभु अवतार कथा पुनि गाई । तब सिसु-चरित कहेसि मन लाई॥५॥ फिर प्रभु रामचन्द्रजी के जन्म की कथा गान कर तब बाल-लीला को मन लगा दो०-यालचरित कहि बिबिध विधि, मन महँ परम उछाह । रिषि आगमन कहेसि पुनि, श्रीरघुबीर बिबाह ॥६॥ भनेक प्रकार के बालचरिम कह कर मन में बड़ा उमय हुआ, फिर विश्वामिनमुनि का मागमन और श्रीरघुनाथजी का विवाहोत्सव वर्णन किया ॥६॥ चौ०-बहुरि राम अमिषेक प्रसङ्गा । पुनि हप बचन बाज-रस भङ्गा ॥ पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा । कहेसि राम लछिमन सम्बादा ॥१॥ फिर रामचन्द्रजी के राज्याभिषेक को घात कही, पुनः राजाज्ञा से राज्यानन्द का नाश होना वर्णन किया। नगर निवासियों का वियोग से दुखी होना, रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी का सम्बाद कहा ॥१॥ विपिन गवन केवठ अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥ प्रभु मिलन बखाना । चित्रकूट जिलि बस भगवाना ॥२॥ कर कहा ॥५॥ बालमीक धनयात्रा, मल्लाह का प्रेम और गाजी उतर कर प्रयाग का निवास कहा। प्रभु राम- चन्द्रजी और वाल्मीकि मुनि का मिलन तथा जिस तरह भगवान चित्रकूट पर टिके, वह बखान कर वर्णन किया ॥२॥