पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४४

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सप्तम सोपान,उत्तरकाण्ड। २०६५ शवरी को गति दी, वह वर्णन किया। पुनः विरह वर्णन करते हुए जिस तरह रघुनाथजी पम्पासर के किनारे गये, वह कहा MER दो-प्रभु नारद सम्बाद कहि, मारुति मिलन प्रसङ्ग । पुनि जुनीव मिताई, बालि प्रान कर मङ्ग. प्रभु और नारदजी का सम्माद कह कर पवनकुमार के मिलने की बात कही । फिर सुग्रीव की मिमता और पाली का प्राण नाश होना कहा। कपिहि तिलक करि मनु कुस, सैल प्रबरणन बास । बरनत्त अरषा सरदरितु, रामरोष कपि त्रास ॥६॥ सुप्रीव को राजतिलक करके प्रभु रामचन्द्रजी ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया। वर्षा और शरद ऋतुर्जा वर्णन र रामचन्द्रजी का क्रोध और सुनीष का डरना कहा ॥६६॥ चौ०-जेहि विधि कपिपति कीस पठाये। सीता खोज सकल दिसि धाये। वियर प्रबेस कीन्ह जेहि माँती। कपिन्ह बहारि मिला सम्पाती ॥१॥ जिस तरह सुन्नीक ने वानरों को सीताजी की खोज के लिये भेजा और सव दिशाओं में ने गये, वह जहा। जिस प्रकार दिल में प्रवेश किया फिर जैसे बन्दरों को सम्पाती गीध मिला, वह वर्णन किया ॥१॥ सुनि सब कथा समीरकुमारा ! नाँधन भयड़ पयोधि अपारा॥ लङ्का कपि प्रबेस जिमि कोन्हा । पुनि खीतहि धीरज जिमि दीन्हा ॥२॥ सम्पाती से सब कथा सुन कर पवनकुमार अपार समुद्र को लाँघ गये। जैसे हनूमाम .. ला में प्रवेश किया और जिस तरह सीताजी को धीरज दिया, वह कहा ॥२॥ बन उजारि राजनहिँ प्रबोधी। पुर दहि नाँधेड बहुरि पोधी । आये कपि सब जहँ रघुराई । बैदेही कह कुसल सुनाई ॥३॥ अशोकवन उजाड़ कर रावण को समझाया और लापुरी जला कर फिर समुद्र को लाँघ आये। सब बन्दर जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आये और जानकीजी की कुशल कहनुमाई ॥३॥ सेन समेत जथा रघुबीरा । उतरे जाइ मारिनिधि तीरा। मिला बिभीषन जेहि निधि आई । सागर निग्रह कथा सुनाई ॥४॥ सेना सहित जैसे रघुनाथजी जा कर समुद्र के किनारे उतरे और जिस तरह विभीषण श्रा कर मिला तथा सिन्धु के दण्ड की कथा सुनाई ॥४॥