पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। १०६० माहि भयउ अति मोह, प्रबन्धन रन लहँ निरखि । चिदानन्द सन्दोह, राम विकल कारन कवन NEEn प्रभु को संग्राम में धंधा ऐष कर मुझ महा शाशान बा कि रामाजी तो चैतन्य और आनन्द के राशि हैं. किस कारण व्याकुल हैं ? En चौ०-देखि चरित नरतनु अनुसारी। अयउ हृदय सम्म संसथ भारी ॥ सोइ भमअवहित करिमैं माना । कीन्ह अनुमाइ कृपानिधाना ॥१॥ मनुष्य शरीर के अनुसार चरित्र देख कर मेरे हृदय में भारी सम्ह श्रा। उस भ्रम को अब मैं हित करके मानता हूँ कि कृपानिधान रामचन्द्रजी ने सुझ पर कृपा की (जिस कारण भाप का दर्शा) ॥६॥ भ्रम रूपी दोष शशीकार करने योग्य नहीं, किन्तु कागभुशुण्डली का समागम उसके द्वारा सुलभ हुआ इससे उसे हितकर मानना 'अनुशा अस्तंकार है। जो अति आतप व्याकुल होई । तरू छाया सुख जानइ खाई ॥ नौँ नहिं होत माह अति सोही । मिलतेउ तात कवन विधि तोही ॥२॥ जो धाम से अत्यन्त विकल होता है, वृक्ष के छाँह का मुख बही जानता है। हे तात! यदि मुझे इतना बड़ा मोह न होता तो आप से किस तरह मिलता ? ॥२॥ सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई । अति निचिन्न बहु बिधि तुम्हगाई। निगमागम पुरान मत एहा । कहहिँ सिद्ध लुनि नहिँ सन्देहा ॥३॥ सुन्दर भगवान् की कथा को कैसे सुनता। जो बहुत तरह से अत्यन्त विलक्षण आपने वर्णन की है। वेव, शास्त्र और पुराणों को यही मत है, सिद्ध-शुनि कहते हैं इसमें सन्देह नहीं है ॥३॥ सन्त बिसुद्ध मिलहिँ परि तेही । चितवहिँ राम कृपा करि जेही ॥ राम कृपा तव दरसन भयऊ । तव प्रसाद सब संख्य गयऊ ॥४॥ विशुद्ध सन्त उसी को मिलते हैं जिस पर रामचन्द्रजी कृपा करके चितवते हैं। राम- चन्द्रजी की कृपा से नाप का दर्शन. मुश्रा और पाए की कृपा से मेरा सब सन्देह दूर हो गया ॥४॥ दो०-सुनि बिहँगपति मानी, सहित बिनय अनुराग.। पुलक गात लाचन सजलं, मन हरषेउ अति काग ॥ पक्षिराज की वाणी, विनती और प्रीति के सहित सुन कर कागभुशुण्डजी मन में पत. असम हुए, उनका शरीर पुलकित हो गया और आँखों में जल भर नाया।