पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११४९

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१०७० रामचरित मानस । चौ०--जो माया सन्न जगहि नजावा । जासु चरित लखि काहु न पाया । सो अनुशू बिलास खगराजा । नाच नटी इव सहित समाजा ॥१॥ ओ माया सम्पूर्ण जगत को नचाती है, जिसकी लीला किसी ने लख नहीं पाई। हे स्वग- राज ! प्रभु रामचन्द्रजी के भौंह के इशारे से वही माया अपने समाज के सहित नर्सको (नाचनेवाली नटिन) की तरह नाचती है ॥१॥ साइ सच्चिदानन्द धन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा । व्यापक व्याय अखंड अनन्ता । अखिल अमेघिसक्ति भगवन्ता ॥२॥ वही सत्-चित्-अानन्द के राशि, अजन्मे, विशान स्वरूप, बल के स्थान रामचन्द्रजी है। सर्वत्र फैले सुप, सब में व्यापनेवाले, अविछिन, अपार सर्वाहपूर्ण भव्यर्थ पराक्रमवाले और षडैश्वर्य युरू हैं ॥२॥ अगुन अदम गिरा गोतीता । सब दरसी अनबर अजीता ॥ निर्मल निराकार निर्माहा। नित्य निरज्जन सुख सन्दोहा ॥३॥ निर्गुण अनन्त, वाणी और इन्द्रियों से परे, लय देखनेवाले, निर्दोष और अजीत हैं। निर्मल, श्राकार रहित, निर्मोह, नित्य, माया से परे और सुख के राशि हैं ॥३॥ प्रकृति पार प्रभु सच उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥ इहाँ माह कर कारन नाहीं । रबि सनमुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥४॥ प्रभु रामचन्द्रजी प्रकृतियों से परे, सब के हृदय में बसनेवाले, परब्रह्म, निस्पृह, अक्रोध और अविनाशी हैं । यहाँ मोह का कारण नहीं है, क्या कभी सूर्य के सामने अन्धकार आता है। (कदापि नहीं) ॥४॥ दो०-भगत हेतु भगवान प्राशु, राम धरेउ . तनु भूप। किये चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप ॥ भगवान प्रभु रामचन्द्रजी ने भक्तों के कारण राजा का शरीर धारण किया और अत्यन्त । पवित्र चरित्र मामूली मनुष्यों के अनुसार किये। जथा अनेक बेष धरि, नृत्य करइ नट कोइ। सोइ सोइ भाव देखावइ, आपुन होइ न सोइ ॥७२॥ जैसे अनेक रूप धर कर कोई नट (बहुपिया) नाच करे और वही वही भाव दिखावे, परन्तु वह स्वयम् (रूप धारण किया हुआ व्यक्ति नहीं हो जाता ||२|| चा-असिरघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमाहनि जन सुखकारी । जे मति मलिन बिषय बस कामी। प्रभु पर मोह धरहि इमि स्वामी ॥१॥ हे गरुड़जी ! रघुनाथजी की लीला ऐसी है कि राक्षसों को विशेष मोहित करनेवाली और !