पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५१

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बी०-सुनु १०७२ रामचरित मानस। निगुण रूप सुगम और सगुण रूप दुर्गम (होने के सम्बन्ध में ) नाना प्रकार के चरित्र (घटनाओं) दो सुन कर मुनियों के मन में भ्रम हो जाता है ॥७३॥ जय सुनियों के मन म हो जाता है, तय अन्य प्राणो क्या चीज है? ये वो भूले भुलाये हैं 'काव्यापत्ति अल कार' है। निगुण रूप इसलिये सुगम है कि वह एक रस रहता है, ईश्वर को सभी जानते हैं । सगुण रूप इसलिये दुर्गम है कि नामा चरित सुख दुःख से मलन होना और रोना विलाप करना, शत्रु मान कर पक को दण्ड देना और मित्र मान कर दूसरे का आदर सत्कार करना इत्यादि बातों को सुन कर मुनियों को भ्रम होना, इसी से श्वर का सगुण रूप जानमा कठिन है। खगेस रघुपति प्रभुमाई । कहउँ जथामति कथा सुहाई ॥ जेहिविधि मोह भयउप्रभुसाहो । सेो सब कथा सुनावउँ ताही ॥१॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं-हे पक्षिराज ! सुनिये, रघुनाथजी की महिमा की सुहावनी कथा मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ। हे स्वामिन् । जिस प्रकार मुझे माइ हुआ था, यह सच वृत्तान्त आप को सुनाता हूँ ॥३॥ राम-कृपा-भाजन तुम्ह लाता । हरिगुन प्रीति माहि सुख दाता । ताल नहिँ कछुतुम्हहि दुरावउँ । परम रहस्य मनोहर गावउँ ॥२॥ हे तात ! श्राप रामचन्द्रजी के रूपापान हैं, श्राप की भगवान के गुणों में प्रीति है और मुझे मानन्द देनेवाले हैं । इस लिए मैं आप से कुछ न छिपाऊँगा, अत्यन्त गुप्त (जो किसी को मालूम नहीं है, मनोहर कथा फहता हूँ ॥२॥ सुनहु शम्म · कर सहज सुमोज । जन अभिमान न राखहिँ काऊ.॥ संतमूल , सूलप्रद नाना । सकल सकिदायक अभिमाना ॥३॥ रामचन्द्रजी की स्वाभाविक आदत सुनिये कि वे सेवकों के हृदय में अभिमान कभी नहीं रहने देते, क्यों कि संसार की जड़, नाना प्रकार के दुखों का देनेवाला और. सम्पूर्ण शाको का प्रदान करनेवाला अहङ्कार ही है ॥३॥ तातें करहिं कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ॥ जिमि सिसुतन बन होइ गुसाँई । मातु चिराव कठिन की नाँई nan इसलिए कृपानिधान रामचन्द्रजो उस से दूर करते हैं कि सेवकों पर उनकी. बहुत बड़ी प्रीति रहती है। हे स्वामिन् ! जैसे बालक शरीर में फोड़ा होता है, उसको कठिनता की भाँति (गोद में लेकर उसकी) माता चिरवाती है ॥en देश-जदपि प्रथम दुख पावइ, रोवइ · बाल अधीर । ब्याधि नास हित जननी, गनत न से सिसु पीर यद्यपि पहले बालक दुःल पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोग नाश होने के विचार से माता लड़के की उस पीड़ा को नहीं गिनती। 1