पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०७३ तिमि रघुपतिनिजदास कर, हरहिँ मान हित लागि । तुलसिदास ऐसे प्रभुहि, कस न भजसि सम त्यागि १७॥ उसो प्रकार रघुनाथजी भलाई के लिये अपने दासों का अभिमान हर लेते हैं। तुलसी. दासजी कहते हैं कि तू ऐसे स्वामी को भ्रम त्याग कर काहे नहीं भजता PN95A चौ-राम कृपा पनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई । जय जय राम मनुज तनु घरहीं । भगत हेतु लीला बहु करहीं ॥१॥ हे खगनाथ ! रामचन्द्रजी की कृपा और अपनी मूर्खता पाहता हूँ, मन लगाकर सुनिये। जब जय रामचन्द्रजी मनुष्य का शरीर धारण करते हैं शौर भको के कारण चतुत सी. हीलायें करते हैं ॥ सब तब अवधपुरी मैं जाऊँ । बालचरित बिलोकि हरपाऊँ । जनम-महोत्सव देखउँ जाई। घरप पाँच तह रहउँ लामाई ॥२॥ तब तय में प्रायोध्यापुरी में जाता हूँ और बाललीला देखकर असा होता है । जा कर अम्ममहोत्सव देखता हूँ और पाँच वर्ष तक वहाँ लुभाया रहता हूँ ॥२॥ इष्टदेव मम रामा । साला अघुण कोटिसत कामा ॥ निज प्रभु बदन निहारिनिहारी । लोचन सफल करउँ उरगारी ॥३॥ बालक रूप रामचन्द्रजी जिनके शरीर को शोभा असंख्यों कामदेव के समान है, वे मेरे इपदेव हैं । हे गरुड़जी ! अपने स्वामी का मुख देख देख कर आँखों को सफा करता हूँ ॥३॥ लघु बायस वपु धरि हरि सङ्गा । देवउँ बालचरित बहु रा Nen -छोटे कार का शरीर धर पर भगवान के साथ बहुत तरह की पाललीला देखता हूँ Meen दो-लरिकाई जहँ जहँ फिरहि, तहँ तहँ सङ्ग उड़ाउँ । जूठन परइ अजिर मह, सो उठाइ करि कार्ड। सरकपन में जहाँ जहाँ फिरते हैं, यहाँ वहाँ मैं भी साथ में उड़ता हूँ। आँगन में जो उनकार जूठन पड़ता है, वह ण्ठा कर खाता हूँ। एक बार अतिसय सब, चरित किये रघुबीर । सुमिरत प्रभु लीला साइ, पुलकित मयउ सरोर ॥५॥ एक बार रघुनाथजी ने अत्यन्त (अचरजमय) सय चरित किये। प्रभु रामचन्द्रजी की उस लीला को स्मरण कर कागभुशुण्ड को शरीर पुनकायमान हुषा noun सेवक सुखदायक। कहइभुसुंडिसुनहु खगनायक। रामचरित नृप मन्दिर सुन्दर सब भाँती । खचित कनकमनि माना जाती ॥१॥ 'कागभुशुण्डिजी कहते हैं-हे पक्षिरा ! सुनिये, रामचरित सेवकों को आनन्द प्रदान