पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११५७

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. सा संछ अदभुत १०७० रामचरित मानस । कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा । अगनित उडुगन रघि रजनीसा ॥ अगनित लोकपाल जम काला । अगनित भूधर भूमि त्रिसाला ॥३॥ परोड़ों ब्रह्मा, शिव और असंख्यों तारागण, सूर्य, चन्द्रमा, अनगिनती लोकपाल, यम- राज, काल और बेशुमार विशाल पर्वत तथा धरती ॥३॥ सागर सरि सर चिपिन अपारा । नाना भाँति सृष्टि विस्तारा ॥ सुरु मुनि सिद्ध नाग नर कित्सर । चारि प्रकार जीव सचराचर ॥४॥ समुन, नमी, तालाय, वन और नाना प्रकार लोक रचना का विस्तार, देवता, मुनि, लिद्ध, नाग, मनुष्य, शिलर और चारों खानि के जड़ चेतन जीव ॥४॥ दो-जो नहिं देखा नहिँ सुना, जो मनहूँ न समाइ। देखेउँ, बरनि कवनि विधि जाइ। जो कभी नहीं देखा, न सुना और जो मन में भी नहीं समाता, वह सब अद्भुत देखा, उसका वर्णन किस तरह किया जाय ? एक एक ब्रह्मांड मह, रहे। बरष सत एक । एहि बिधि देखत फिरउँ मैं, अंडक्टाह अनेक ॥८॥ एक एक ब्राह्माण्ड में एक एक सौ वर्ष पर्यन्त मैं रहा। इस प्रकार असंख्यों लोकमण्डलों को देखता-फिरा 2011 इस प्रकरण में कागभुशुण्डजी का श्राश्च स्थायीभाव है जो कि रामचन्द्र जी के उदर में प्रवेश करने से उत्पञ्च हुआ है । इसलिये यह बालम्बन विभाव है। ब्रह्मा, शिव, लोकपाल, सम, काल, नदी, तालाश, समुद, पर्वत, वन, देवता, नागादि को भिन्नभिन्न प्रकार असंख्यों देखना उद्दीपन विभाव है। इस अनन्त महिमा को देख कर मुख से बाहर होने पर धरती पर पड़ कर दण्डवत करना, रक्षा के लिये पुकारना अनुभाव है । मोह, बास आदि सहारीमावों से पुष्ट होकर 'अद्भुत रस' हुआ है। चौo-लोकलोकप्रति भिन्न बिधाता । भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसि त्राता॥ । नए गन्धर्व भूत बेताला । किन्नरनिसिचर पसु खग ब्याला॥१॥ प्रत्येक लोकों में भिन्न भिन्न ब्रह्मा, विष्णु, शिव, मनु, दिगपाल, मनुष्य, गन्धर्ष, भूत, बेताल, शिक्षर, राक्षस, पशु, पक्षी और सप ॥१॥ देव दनुज गन • नाना जाती । सकल जीव तहँ आनहिँ भाँती ॥ महिं सरि सागर सर गिरि नाना । सब प्रपञ्च तहँ आनहिँ आना॥२॥ देवता, दैत्यगण नाना जाति के सम्पूर्ण जीव वहाँ और ही तरह हैं। धरती, नदी, सिन्धु, तालाब और अनेक प्रकार के पर्वत सारी सुष्टि वहाँ और ही और है ॥२॥ यहाँ सभी वस्तुओं का और हो और होना वर्णन 'भेदकातिशयोक्ति अलंकार' है।