पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६

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६५ प्रथम सोपान, बालकाण्ड । तिन्ह नप-सुतहि कीन्ह परनामा । कहि सच्चिदानन्द परधामा । भये मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी४५ उन्होंने राजपुत्र को सच्चिदानन्द वैकुण्ठनाथ (साकेत विहारी) कह कर प्रणाम किया ! उनकी छवि निहार कर मन हुए हैं, अबतक हृदय में प्रीति नहीं रुकती है ॥ ४॥ सतीजी के मन में सन्देह के कारण तरह तरह के विचारों का उठना, वितक सधारी भाव' है। देश-ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज, अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि हाइ नर, जाहि न जानत बेद ॥ ५० ॥ जो ब्रह्म, सर्वव्यापी, निर्मल, अजन्मा, अंगहीन, इच्छारहित, भेदशून्य ( समान ) है। जिनको वेद नहीं मानते, क्या वह शरीर धारण कर मनुष्य हो सकता है ? (कदापि नहीं) ॥५०॥ चौ -बिनु जो सुर-हित नर-तनु-धारी । सेोउ सरबज्ञ जथा त्रिपुरारी ॥ खोजइ सो कि राज्ञ इव नारी । ज्ञान-धाम श्रीपति असुरारी॥१॥ जो विष्णु देवताओं की भलाई के लिए. मनुष्य देह धारण करते हैं, वे भी शिवजी की तरह सब जाननेवाले हैं । लक्ष्मीपति, शान के धाम और दैत्यों के शत्रु हैं, क्या वे अज्ञानियों के समान स्त्री को ढूँढ़ते फिरेंगे ? ( कदापि नहीं ) ॥१॥ विष्णु के अवतार नहीं, ये कोई मनुष्य राजा के पुत्र हैं । सती के हृदय में यह आश्चर्य स्थायीभाव है। सम्भु गिरा पुनि मृषा न होई । सिव सरबज्ञ जान सब कोई ॥ असं संसय मन भयउ 'अपारा । होइ न हृदय प्रबोध प्रचारा ॥२॥ फिर शिवजी के वचन झूठे नहीं होंगे, सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। ऐसा मन में अपार सन्देह हुश्रा, जिससे हृदय में ज्ञान का पसार नहीं होता है ॥२॥ जद्यपि प्रगट न कहेउ अवानी। हर अन्तरजामी सब सुनहु सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिय उर काऊ ॥३॥ यद्यपि सती ने प्रकट नहीं कहा, (मन ही मन वर्क वितर्क कर रही थीं) पर हृदय की बात जाननेवाले शिवजी सब जान गये। उन्होंने कहा- हे भवानी ! सुनो, तुम्हारा स्त्री का 'स्वभाव है, ऐसा सन्देह कभी मन में न लाना चाहिए ॥ ३॥ गुटका में 'संसय असन धरिय तन काऊ' पांठ है, किन्तु लक्षणा द्वारा 'तन' शब्द का मन ही अर्थ होगा, क्योंकि सन्देह करने या रखने का स्थान हृदय है, तन नहीं। जासु कथा कुम्भज रिषि गाई । मगति जासु मैं मुनिहिँ सुनाई ॥ सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥१॥ जिनकी कथा का अगस्त्य मुनि ने गान किया है और जिनकी भक्ति मैंने ऋषि को सुनाई है, ये वही रघुनाथजी मेरे इष्टदेव हैं, जिनकी धीर मुनि सदा सेवा करते हैं ॥ ४ ॥ जानी॥