पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६०

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। मच्छ सकल सुख योगाश्वर मुनि ढूँढ़ते हैं और स्वामी की कृपा से कोई पाते है । सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । २०६१ दो-सुनि सप्रेम सम बानी । देखि दीन निज दास। बच्चन सुखद गल्लीर बोले रमानिवास ॥ मेरो प्रेम भरी पाणी सुन कर और अपने दास को दुखी देख कर लक्ष्मीकान्त भगवान् रामचन्द्रजी फेमिल गम्भीर सुखदायफ वचन बोले । कागभुसुंडी माँगु बर, अति प्रसन्न कोहि जानि॥ अनिमादिक सिधि अपर रिधि, खानि ॥६॥ हे कागभुशुण्डी ! मुझे अत्यन्त प्रसन्न जान फर तू वर माँग । अणिमा लादि सिद्धियाँ, अन्य ऋड़ियाँ और सम्पूर्ण सुखों मोह चौ-ज्ञान विवेक विरति विज्ञाना । सुरदुर्लभ गुन जे जग जाना ॥ आजु देउँ सब संसय नाहीं । माँगु जो तोहि मान रन माहीं ॥१॥ शान, विचार, वैराश्य, विशान और जिन गुणों को संसार देवताधों को दुर्लभ समझता है। आज मैं सब दूंगा इसमें सन्देह नहीं, जो तुझे मन में अच्छा लगे माँग ते ॥१॥ सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ । मन अनुमान करना लागेउँ प्रभु कह देन तकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही ॥२॥ प्रभु के पचन सुन कर मैं अधिक प्रेम में मग्न हो तब मन में अनुमान करने लगा कि स्वामी ने मुझे सम्पूर्ण सुख देने को कहा सही, परन्तु अपनी भक्ति देने के लिये नहीं कहा ॥२॥ मगति होन गुन सब सुख कैसे । लवन बिना बहु व्यञ्जन जैसे। भजन हीन सुख कवने काजी । अस मिचारि बोलेॐ खगराजा ॥३॥ भक्ति रहित गुण और सप सुख कैसे फीके हैं, जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के यम्जन । मजन विहीत मुख किस काम का ? हे खगराज ! ऐसा विचार कर मैं बोला ॥३॥ जौँ प्रभु होइ मसक्ष बर देहू । आपर करहु कृपा अरु नेहू ॥ मन-मावत बर माँगउँ स्वासी । तुम्ह उदार उर अन्तरजाली ugu हे प्रभो ! यदि मुझ पर श्राप दया र स्नेह करते हैं तथा प्रसन्न हो पर कर देते हैं। वामिन् ! मैं मन में समानेवाला वर माँगता हूँ, आप हानशील और उदय की बात जानने- वी--अबिरल भगति बिसुद्ध तव, सुति पुरान जो गाव । जेहि खोजत जोगीस मुनि, प्रभु प्रसाद कोड पाव ॥ मापकी अभिल (जो विरल न हो) पवित्र भक्ति जिसको वेद पुराण गाते हैं, जिसे. वाले हैं |