पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६१

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1 १००२ रामचरित मानस । भगत-कलपतरु प्रनत हित, कृपासिन्धु सुखधाम । सोइ निजागति माहि प्रयु, देहु दया करि राम ॥८॥ हे भलों के कल्पवृक्ष, शरणागतों के हितकारी, रुपा के समुद्र, सुख के स्थान, स्वामी रामचन्द्रजी ! वही अपनी भक्ति मुझे दया करके दीजिये ॥२४॥ चौ०--एवमस्तु कहि रघुकुलनायक । बोले बचन परम सुखदायक ॥ सुनु बायस ते सहज थाना । काहे न माँगसि, अस बरदाना ॥१॥ रघुकुल के स्वामी ने ऐसा ही हो कह कर अत्यन्त मुखदायक वचन बोले । हे काग! सुन, तू सहज चतुर है, क्यों न ऐसा वरदान माँगे ॥१॥ सब सुख खानि अगति तैं माँगी । नहिं जग कोउ ताहि सम बड़मागी जो मुलि कोटि जतन नहिँ लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं ॥२॥ तुने सब सुखों को खानि भक्ति माँगो, संसार में तेरे समान पड़ा भाग्यवान कोई नहीं है। जिसको मुनि लोग करोड़ों यत्न करके नहीं पाते, जो जप और योग की अग्नि में शरीर को जला डालते हैं ।।२ रोझे देखि तोरि जतुराई । माँगेहु भगति मेहि अति भाई ॥ सुनु निहङ्ग प्रसाद अब मारे । सब सुसगुन बसिहहिँ उर तारे ॥३॥ तेरी चतुराई देख कर मैं प्रसन्न हुआ, तू ने भक्ति माँगी यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। हे पक्षी ! सुन, अब मेरो कृपा से सब शुभ गुण तेरे हृदय में निवास करेंगे ॥३॥ भगति ज्ञान. बिज्ञान बिरागा । जोग चरित्र रहस्य विभागा ॥ जान से लबही कर सदा । मम प्रसाद नहिँ साधन खेदा ॥४॥ भक्ति, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य, योग, चरित्र और छिपे हुए रहस्य पृथक् पृथक् तू सभी के भेदों को जानेगा, मेरे अनुग्रह से साधना का कष्ट न होगा ॥४॥ दो मायासम्भव भ्रम सकल, अब न व्यापिहहिं ताहि । जानेखु ब्रह्म अनादि अज, अगुन गुनाकर. मेाहि ॥ माया से उत्पन्न होनेवाले समस्त भ्रम अव तुझ कोन व्योपेंगे। मुझे अनादि ब्रह्म, जन्म- रहित, निर्गुण और गुणों की खानि समझना। माहि: भगत प्रिय सन्तत, अस बिचारि सुनु काग। काय बचन मन मम पद, करेसु अचल अनुराग ॥८॥ . हे.काग ! सुन, मुझे भात सदा प्यारे हैं, ऐसा विचार कर शरीर वचन और मन से मेरे चरणों में अचल प्रेम करना ॥५॥ ।