पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १०६३ चौ-अब सुनु परयविमलममबाली। सत्य सुगम लिगमादिबखानी । निज सिद्धान्त सुनावउँ तोही.। सुनि मन घरु सबतजि भजु मोही॥१॥ अब मेरी अत्यन्त निर्मल वाणी सुन, जो सत्य और सुगम वेद-शास्त्रों में कही है । मैं तुझा को अपना सिद्धान्त सुनाता है, उसको सुन कर मन में धारण कर और लव त्याग कर मेरा । भजन कर मम माया सम्मन संसारा । जीव चराचर विविध प्रकारा॥ सम मम प्रिय सब सम उपजाये। सत्र से अधिक मनुज मोहि भाये॥२॥ .यह संसार मेरी माया से उत्पन्न है, इसमें जड़ चेतन अनेक प्रकार के जीव है । वे सब मुझे प्रिय है, क्योंकि सर मेरे ही उपजाये हैं, उन जीवों में सबसे अधिक मुझे मनुष्य अच्छे लगते हैं ॥२॥ सभा की गति में 'मम माया सम्भव परिवार पाठ है, किन्तु यहाँ परिवार से कोई 'प्रयोजन नहीं है घात तो संसार को कहते हैं। तिन्ह महँ द्विज द्विज मह खुतिधारी। तिन्ह महँ लिगम-धर्म अनुसारी ॥ तिन्ह महँ प्रिय मिरक्त पुनि ज्ञानी । ज्ञानिहु ते अति प्रिय विज्ञानी ॥३॥ उनमें प्राण, प्राणों में चेदा और उनमें जो वेदोक्त धर्म के अनुसार चलते हैं। उनमें वैराग्यवान प्यारे हैं, फिर विरों में शामी और शानियों से विज्ञानी अत्यन्त प्रिय हैं ॥३॥ तिन्हतें पुनि माहि प्रियनिज दासा । जेहि गति मोरि न दूलरि आसा पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं । माहि सेवक सम प्रिय कोड नाहीं ॥४॥ फिर उनसे मुझे अपने दास प्यारे हैं, जिन्हें मेरी मति के सिवाय दूसरे की आशा नहीं । बार बार मैं तुझ से सत्य कहता हूँ कि सेवकों के समान सुमे शाई प्रिय नहीं हैं Men वर्णित वस्तुओं का उत्तरोत्तर उत्कर्ष कथन है अर्थात् चराचर जीव सब मुझे प्रिय हैं, उनमें मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, ब्राह्मणों में वेदश, वेदों में वेद धर्मानुयायो, उनमें विरक, विरको में ज्ञानी, झानियों में विज्ञानी और विज्ञानियों से बढ़ कर दाल प्यारे हैं 'सार अलंकार है। भगति हीन विरचि किन हाई ! सब जीवहु सम प्रिय माहि खाई ॥ भगतिधत अति नीचउ प्रानी । मोहि प्रान प्रिय अखि मम बानी ॥५॥ .. भक्ति से रहित ब्रह्मा ही क्यों न हो, वह सब जीवों के समान मुझे प्रिय है। भक्तिधान पाणी अत्यन्त नीच ही क्यों न हो, मुझे प्राण के समान वा प्यारा है ऐसी मेरी आदत (स्वभाष) है ॥५॥