पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । चौल-कबहूँ काल न व्यापिहि तोही। सुमिरेसु बजेसु निरन्तर माही ॥ प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ । तल पुलकित मन अति हरपाऊँ ॥१॥ तुझे कमी काल न व्यापेमा अर्थात् मृत्यु होगी, मुझे निरन्तर भजगा और स्मरण करना । प्रभु रामचन्द्रजी के वचन रूपी श्रमत को सुन कर अधाता नहीं था, शरीर पुलकित हो गया, मन में बहुत प्रसश हुआ ११॥ सो सुख जानइ मन अरु काना । नहिं रसना पहिँ जाइ बखाना ॥ प्रभु सेमिासुख जानहिं नयना । किमि कहि सकहिँ तिन्हहिं नहिँ बयना॥२॥ उस सुख को मन और कान जानते हैं, किन्तु जीम से कहा नहीं जा सकता । प्रभु राम- चन्द्रजी की शोभा भानन्द को माने जानती है, पर वे कह कैले सकती है ? हे वाणी नहीं है ॥२॥ शोभा न कह सकने के कारण को हेतुसूचक बात कह कर समर्थन करना जोम कहने में समर्थ है उसे आँख नहीं जो देखा हो और आँखों ने देखा है पर उन्हें जीस नही जो कह स। 'काव्याला अलंकार है। बहु बिधि माहि प्रबोधि सुख देई । लगे करन सिसु कालुक तेई । सजल नयन कछु मुख करि रूखा । चितइ मातु लागी अति भूखा॥३॥ बहुत तरह समझा कर मुझे सुख दिया, फिर वही बाल कोड़ा करने लगे। आँखों में जल भर कर और मुख कुछ नया करके अत्यन्त भूख लगी; माता की ओर निहारने लगे ॥३॥ देखि मातु आतुर उठि धाई । कहि मदु बचन लिये उर लाई । गोद राखि कराक पय पाना | रघुबर चरित ललित कर गाना IN देख कर कोमल वचन कहती हुई माता तुरन्त उठ कर दौड़ी और हदय से लगा गोदी में ले कर दूर पिलाने लगी और रघुनाथजी के सुन्दर बाल चरित्र को गान करती सो०-जेहि सुख लागि पुरारि, असुभ बेष कृत सिब सुखद । अवधपुरी नर नारि, तेहि सुख महँ सन्तत सगन । जिस सुख में लग कर त्रिपुरारि-शिवजो श्रमजल वेष किये रहने पर भी भानन्ददाता हैं। अयोध्यापुरी के पुरुष निरन्तर उसी सुख में मग्न हैं। सोई १ सुख लवलेस, जिन्ह मारक सपनेहुँ लहेड । ते नहिँ गनहि खगेस, ब्रह्म-सुखहि सज्जन सुमति ॥८॥ उसी सुख का लवलेशमान जिहों ने एक बार सपने में भी पाया, हे पक्षिराज ! सुन्दर मतिमान सज्जन (उसके समक्ष) ब्रह्मानन्द को कुछ नहीं समझते UA