पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६८

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Pore दो०-राम अमित गुन सागर, थाह कि पावइ कोइ। सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा । सिन्धु कोटिसत सम गम्भीरा ॥ कामधेनु सतकोटि समाना । सकल कामदायक संगवाना ॥२॥ करोड़ों हिमालय पर्वत के समान रधुनाथजी स्थिर हैं, असंण्यों समुद्र के समान गहरे हैं। अपरिमित कामधेनु के समान भगवान रामचन्द्रजी सम्पूर्ण कामनाओं के देनेवाले हैं ॥२॥ सारद कोटि अमित चतुराई । विधि सतकोटि सृष्टि निपुनाई ॥ बिष्नु कोटिसत पालन करता । रुद्र कोटिसत सम सङ्घरता ॥३॥ करोड़ों सरस्वती के समान बहुत अधिक चतुर हैं, असंखयों विधाता के समान सृष्टि-रचना की प्रवीणता है । अपरिमित विष्णु के समान पालन करनेवाले और अगणित रुद्र के समान संहार करनेवाले हैं ॥३॥ धनद कोटिसत सम धनवाना । माया कोटि प्रपञ्च निधाना ॥ भार धरन सत्तकोटि अहीसा । निरवधि निरुपम प्रा जगदीसा ।। असंख्यों कुवेर के समान धनवान हैं और करोड़ माया के समान संसार-रचना के माधार है। अगणित शेष के समान वोझा लेनेवाले प्रभु रामचन्द्रजी अनन्त, उपमा रहित और जगत के स्वामी है ॥ हरिगीतिका-चन्द । निरुपम न उपमा आन राम समान राम निगम है। जिमि कोटिसत खद्योत सम रबि, कहत अति लघुता लहै। एहि भाँति निजनिज मति-बिलास मुनोस हरिहि बखानहीं। प्रभु भावगाहक अतिकृपाल सप्रेम सुनि सचु पावहीं ॥१६॥ वेद कहते हैं कि रामचन्द्रजी अनुपम हैं, दूसरी उपमा नहीं; रामचन्द्र के समान रामचन्द्र ही हैं । जैसे असंख्यों जुगुनू के समान भूj को कहने से उनकी बड़ी छोटाई होती है। इस तरह अपनी अपनी बुद्धि-विलास के अनुसार मुनीश्वर भगवान् को बचानते हैं। प्रभु रामचन्द्रजी प्रेम के ग्राहक और अत्यन्त कृपा के स्थान हैं, उनकी प्रेम भरी वाणी सुन कर आनन्द से परिपूर्ण होते हैं ॥१६॥ सभा की प्रति में राम समान निगमागम कहे, पाठ है। सन्तन्ह सन जस कछु सुनेउँ, तुम्हहिं सुनायउँ सोइ । रामचन्द्रजी अपार गुणों के समुद्र है, क्या उनका कोई थाह पा सकता है ? (कदापि नही) 1 जैसा कुछ मैं ने सन्तों से सुना था, वही आपको सुनाया है।