पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११६९

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१०६० रामचरित मानस । सा-मावस्या भगवान, सुखनिधान करुना भवन । तजि समता मद मान, अजिय सदा सीतारमन ॥९ भगवान सुरु के स्थान, दयानिकेत हैं और प्रेम के वश में हैं। ममत्व, मद और अभिमान त्याग कर सदा सीतारमण-रामचन्द्रजी का भजन कीजिये ॥२॥ यहाँ पर्यन्त गुरुजी के प्रश्नों के उत्तर समाप्त कर कागभुशुण्डजी उन्हें रामभजन का उपदेश देकर चुप हो गये। चौ० सुनि भुसुंडि के बचन सुहाये । हरषित खगपति पङ्ख फुलाये ॥ नयल नीर मन अति हरपाना । श्रीरघुपतिप्रताप उरआना ॥१॥ भुशुण्डी के सुहावने वचन सुन कर गरुड़जी के प्रसन्नता से पल फूल आये हैं। आँखों में आँसू भर आया और मन में बहुत हर्षित हुए, रधुनाथजी की महिमा हृदय में स्मरण कर सोचने लगे ॥१॥ पाछिल माह समुझि पछिताना । ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥ पुनि पुनि काम चरन सिर नावा। जानि राम सम प्रम बढ़ावा ॥२॥ पहले का अहान समझ कर पछताते हैं कि अमावि ब्रह्म को मैं ने मनुष्य मान कर बा अनर्थ किया । बार बार कागभुशुएखजी के चरणों में सिर नवाया और उन्हें रामचन्द्रजी के समान जान कर प्रेस बढ़ाया ॥२॥ गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई । जौं बिरचि सङ्कर सम होई ॥ संसय सर्प अखेउ सोहि ताता। दुखद लहरि कुनर्क बहु ब्राता ॥३॥ बिना गुरु के कोई संसार रूपी समुद्र से पार नहीं हो सकता, यदि वह प्रथा और शिवजी के समान ही हो । हे तात! मुझे सन्देह रूपी साँप ने डस लिया, समूह कुतर्क रूपी बयुत सी दुखलाई लहरें आ रही थीं ॥३॥ तव सरूप मारुड़ि रघुनायक । माहि जिआयेउ जन सुखदायक ॥ तव प्रसाद मम मोह नसाना । राम रहस्य अनूपम जाना ॥४॥ श्राप के शरीर रूपी गारुती मन्त्र से भक्तो के सुख देनेवाले रघुनाथी ने मुझे जिन्नाया। आप की छपा ले मेरा अचान नष्ट हुआ और रामचन्द्रजो का अनुपम छिपा हुआ इतिहास जाना mall दो-ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि, सीस नाइ कर जारि । बचन बिनीत सप्रेम मृदु, बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥ कागभुशुण्डजी को सिर नवा कर और हाथ जोड़ कर अनेक प्रकार से उनकी प्रशंसा कर के गरुड़जी फिर प्रम के साथ ननता युक कोमल वचन वाले। )