पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७

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रामचरित मानस । . हरिगीतिका -छन्द । मुनिधीर जोगी सिद्ध सन्तत, बिमल मन जेहि ध्यावहीं। कहि नेति निगम 'पुरान आगम, जासु कीरति गावहीं। सोइ राम व्यापक ब्रह्म झुवन-निकाय-पति मायाधनी। अवतरेउ अपने भगत-हित निजतन्त्र नित रघुकुल-मनी ॥२॥ जिनका धीरमुनि, योगीजन और सिद्ध लोग निर्मल मन से निरन्तर ध्यान करते हैं। जिनकी कीर्ति वेद, पुराण और शास्त्र 'इति नहीं' कह कर गाते हैं । वे हो मायानाथ, समस्त लोकों के स्वामी व्यापक ब्रह्म रामचन्द्र जी हैं । रघुकुल के रनरूप भगवान ने अपने भक्तों की भलाई के लिए स्वेच्छानुसार जन्म लिया है ॥२॥ सो-लाग न उर उपदेस, जदपि कहेउ सिव बार बहु । बोले बिहँसि महेस, हरि-माया-बल जानि जिय ॥५१॥ यद्यपि शिवजी ने बहुत बार कहा, तो भी हृदय में वह उपदेश न लगा अर्थात् वह शिक्षा सती के लिए कारगर न हुई। तब भगवान् की माया का बल मन में जान कर शिवजी हँस कर बोले ॥५१॥ चौ०-जी तुम्हरे मन अति सन्देहू। तो किन जाइ परीछा लेह । तबलगि बैठ अहउँ बट छाहौँ । जबलगि तुम्ह अइहहु मोहि पाहीं ॥९॥ यदि तुम्हारे मन में बहुत ही सन्देह है तो जा कर परीक्षा क्यों नहीं कर लेती । जब तक तुम मेरे पास लौट न पाश्रोगी, तब तक मैं बड़ की छाया में बैठा रहूँगा ॥ १॥ जैसे जाइ मोह-भम-भारी। करेहु सो जतन बिबेक बिचारी ॥ चली सती सिव आयसु पाई । करइ विचार करउँ का भाई ॥२॥ जिस तरह अज्ञान से उत्पन्न तुम्हारा यह भारी भ्रम दूर हो, वह यत्न विचार के साथ (समझदारी से) करना। शिवजी की आज्ञा पा कर सती चली, वे मन में सोचने लगीं कि--, भाई ! क्या करूं? ॥२॥ इहाँ सम्भु अस मन अनुमाना । दच्छ-सुत्ता कहँ नहि कल्याना ॥ मोरेहु कहे न संसय जाहीं । बिधि बिपरीत मलाई नाहीं ॥३॥ शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष की कन्या (सती) का कल्याण नहीं है। मेरे कहने पर भी इनका सन्देह नहीं जाता है तो विधाता उलटे हुए हैं। अब इनकी कुशल नहीं है॥३॥