पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७२

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१०६३ सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । चौ०-स्वारथ साँच जीव कहँ एहा । मन क्रम बचन राम-पद नेहा । सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा । जोतनु पाइ मजइ रघुबीरा ॥१॥ जीव का सच्चा स्वार्थ यह है कि मन, कर्म और वचन से रामचन्द्रजी के चरणों में स्नेह हो। पवित्र और वही सुन्दर शरीरवाला है, जो देह पा कर रघुनाथजी का भजन करे ॥१॥ रामबिमुख लहि बिधि सम देही । कबि कोबिद न प्रर साह तेही। रामभगति एहि तन उर जामी । तातें सोहि परमप्रिय स्वामी ॥२॥ रामजन्द्रजी से विमुख रह कर ब्रह्मा के समान शरीर क्यों न पाये ? पर कवि और विद्वान उसकी प्रशंसा नहीं करते । इसी देह से मेरे हृदय में रामममि उत्पन्न हुई, हे स्वामिन् ! इसलिये यह मुझे घरस प्यारी है ॥२॥ तजउँन तनु निज इच्छा मरना । तन बिनु बेद भजन नहिँ बरना ।। प्रथम माह माहि बहुत बिगोवा । राम बिमुख सुखकबहुँ नसावा ॥३॥ मरनो अपनी इच्छा के प्राधीन है इससे शरीर नहीं त्यागता है, वेद कहते हैं कि विना देह के भजन नहीं हो सकता ! पहले माह ने मुझे बहुत ही नष्टभ्रष्ट किया था, मैं रामचन्द्रजी से विपरीत हो फर सुख की नींद कभी न सोया | नाना जनम करम पुनि नाना किये जोग जप तप मख दाना । कवन जानि जनमेउँ जहँ नाहीं । मैं खरोस श्चमि अमि जग माहीं ॥४॥ अनेक जन्म लेकर फिर उनमें नाना प्रकार के कर्म, योग, जप, तप, यज्ञ और दान किये हे पक्षिराज ! संसार में कौन ऐसी योनि है ? जहाँ मैं ने भरम भरस कर जन्म न लिया हो ॥४॥ देखेउँ करि सब करम गोसाँई । सुखी न भयउँ अबहिँ की नाँई ॥ सुधि मोहि नाथ जनम बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोह न घेरो ॥५॥ हे स्वामिन् ! सब कर्म करके मैं ने देख लिया, पर अब (इस समय) की भाँति सुखी नहीं हुमा । हे नाथ ! मुझे बहुत जन्म की सुधि है, शिवजी की कृपा ले मेरो बुद्धि को अज्ञान ने नहीं घेरा दो०-प्रथम जनम के चरित अब, कहउँ सुनहु बिहँगेल । सिटाहि कलेस। सुनि प्रभु-पद रति उपजड़, है पंक्षिराज अव में अपने पहले जन्म का चरित्र कहता हूँ, उसको मुनिये । सुन कर जाते प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति उत्पन्न होगी, जिससे संकट मिट जायेगे। पूरबकल्प एक प्रभु, जुग कलिजुग मल-मूल । नर अरु नारि अधर्म रत, सकल निगम प्रतिकूल ॥६॥ हे प्रभो ! पहले के एक कल्प में पाप का मूल कलियुग नामक युग था, उसमें सम्पूर्ण श्री पुरुष अधर्म में संलग्न और वेद से विरुद्ध आचरण करते थे ॥१६॥