पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७४

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड १०६५ हैं । ब्राह्मण वेद के बेचनेवाले हो गये, राजाप्रजा के खानेवाले और कोई घेद की आशा को नहीं मानते हैं ॥१॥ मारग सेाइ जाकहँ जोइ मावा । पंडित सोइ जो गाल बंजावा ॥ मिथ्यारम्भ दम्भ रत जाई । ताक, सन्त कहइ सब कोई ॥२॥ जिसको जो अच्छा लगता वही मार्ग है, पण्डित वही है जो गाल बजावे सर्थात् झूठ मूठ की शेती हाँकै । जो मिथ्या कामों के आरम्भ और पाखण्ड में तत्पर रहता है, उसको सद कोई सन्त कहते हैं ॥२॥ सोइ सयान जो परधन हारी । जो कर दस्म सो बड़ आचारी॥ जो कह शूठ मसखरी जाना । कलिजुग खोइ गुनवन्त बखाना ॥३॥ वही चतुर है जो पराये की सम्पति हरता है और जो पाखण्ड करता है वही बड़ा भावारी है। जो झूठ कहता है और मससरी जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है। निराचार जो खुतिपय त्यागी । कलिजुग साइ ज्ञानी बैरागी । जा के नख अरु जटा चिसाला । साइ तोपस प्रसिद्ध कलिकाला ॥४॥ जो प्राचार-नष्ट और घेदमाग को त्यागे हुए है, कलियुग में वही शानी और विरागी हैं। जिनके नख और जटायें बहुत बड़ी हैं, वहीं कलिकाल के विख्यात तपस्वी हैं । दो-असुभ बेष भूपन धरे, अच्छानच्छ जे खाहिँ। तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर, पूजित कलिजुग माहिँ ॥ जो अमाल वेश के भूषण धारण किये हैं और साधासा (भद्य मांसादि) खाते हैं। थे ही योगी, वे ही सिन मनुष्य कहा कर कलियुग में पूजे जाते हैं। सो०-जे अपकारी चार, तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ । मन क्रम बचन लधार, ते बक्रता कलिकाल मह ।। जो बुराई करनेवाला के दास हैं, उन्हीं की इज्जत है और वे ही माननीय हैं । जो मन, कर्म और वचन से झूठे हैं, वे ही कलियुग में वक्ता (व्याख्यानहाता और कथा कहनेवाले) कहे जाते हैं 18 चौ-नारिबिबस नर सकल गोसाँई। नाचहिँ नह मरकट की नाई। सूट द्विजन्ह उपदेसहि ज्ञानी । मेलि जनेऊ हिँ कुदाना ॥१॥ हे स्वामिन् ! सम्पूर्ण मनुष्य स्त्री के अधीन हुए नट के बन्दर की वरह नाचते हैं। शुद्ध माक्षणों को मानापदेश करते हैं और जनेऊ पहन कर पुरे दानों को लेते हैं ॥१॥