पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७५

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१०६६ रामचरित मानस । सब नर काम लोल रत क्रोधी । बेद विप्र गुरु सन्त बिरोधी ॥ गुन मन्दिर सुन्दर पति त्यागी । मजहिँ नारि परपुरुष अभागी ॥२॥ सव मनुष्य काम, क्रोध और लाभ में तत्पर चेद, साक्षण, गुरु तथा सन्तों के विरोधी हैं। गुण के मन्दिर सुन्दर पति को त्याग कर अभागिनी स्त्रियाँ पराये पुरुष को भजती हैं ॥२॥ सोमागिनी निभूपन हीना । बिधवन्ह के सृङ्गार नबीना । गुरु सिष्य बधिर अन्ध कर लेखा । एक न सुनइ एक नहि देखा ॥३॥ सुहागिनी स्त्रियाँ अलंकार रहित और विधवाओं के नये श्रृंगार होते हैं। गुरु शिष्य का लेखा बहिर और नन्धे का सा है, एक सुनता नहीं तथा दूसरा देखता नहीं ॥३॥ हरइ सिण्य धन खाक न हरई । सो गुरु घोरनरक महँ परई । मातु पिता बालकन्हि बालावहिं । उदर भरइसाइ धरम सिखावहिँ ॥४॥ जो गुरु शिष्य के धन को हरता है, किन्तु उसके शोक को नहीं हरता, वह भयानक नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाते हैं और पेट भरे वही धर्म सिखाते हैं ॥४॥ दो-ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर, कहहिं न दूसरि बात । कौड़ो लागि लाम बस, करहिं विप्र गुरु धात ॥ प्रलमान के बिना स्त्री-पुरुष दूसरी बात नहीं कहते, किन्तु लाभ वश कौड़ी के लिये ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं। बादहिँ सूद्र द्विजन्ह सना, हम तुम्ह तँ कछु घाटि। जानइ ब्रह्म सो बिमबर. आँखि देखावहिं डाटि IEEn शुद्र लोग ब्राह्मणों से कहते हैं कि हम तुम से कुछ घट कर हैं ? डाँट कर आँख दिखाते हैं कि जो बेद को जानता है वह श्रेष्ठ ब्राह्मण है ॥६॥ ची-पर तिय लम्पट कपट सयाने । मोह द्रोह ममता लपटाने ॥ तेइ अभेद-वादी ज्ञानी नर । देखा मैं चरित्र कलिजुग कर ॥१॥ जो परायी स्त्री से व्यभिचार करनेवाले, धोखेबाज़ी में चतुर, अशान, द्वेष और ममत्व में लिपटे हुए है। वे ही मनुष्य अद्वैतवादी (जीवात्मा और परमात्मा में भेद न माननेवाले ) बानी कहे जाते हैं, ऐसा चरित्र मैं ने कलियुग का देखा है ॥१॥ आपु गये अरु तिन्हहूँ घालहिँ । जे कहुँ सत-मारग प्रतिपालहिँ ॥ कल्प कल्प अरि एक एक नरका । परहिँ जे दूषहिँ सुति करि तरका ॥२॥ आप तो गये ही हैं और उन्हें भी बिगाड़ते हैं जो कहीं सत्मार्ग का पालन करते हैं । जो अपनी उति से वेद को दोष देते हैं वे एक एक नरक में एक एक कल्प एर्यन्त पड़ते हैं ॥२॥ सभा की प्रीति में 'श्राप गये अरु औरनि घालहि पाठ है। . .