पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । poste जे बरनाधम तेलि कुम्हारा । स्वपच किरात कोल कलवारा ॥ नारि मुई गृह सम्पति नासी । मूंड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥३॥ जो अधम वर्ण के तेली, कुम्हार, मेहतर,शवर फोल और कलवार हैं। उनकी स्त्री मरी और थर की सम्पदा नष्ट हुई, फिर वे मूंड़ मुड़ा घर सन्यासी हो जाते हैं ॥३॥ ते विप्रन्ह सन पाँच पुजावहिँ । उभय लोक निज हाथ नसावहिँ ॥ विम निरन्छर लोलुप कामी । निराचार सठ ऋषली स्वामी ॥४॥ वे ब्राह्मणों से पाँव पुजवाते हैं. अपना लोक और परलोक दोनों अपने हाथ से नाश कर देते हैं । ब्रामण निरक्षर ( मून) लालची, कामी, माचार-अष्ट, दुष्ट श्री कुलटा स्त्री के स्वामी मने हैं ॥४ गुटका में 'ते विभन्ह सन मापु पुजावहि पाठ है। सूद्र कहिँ जप तप व्रत नाना । बैठि बरासन कहहिँ पुराना ॥ सब नर कल्पित करहि अचारा । जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥ शुद्र नाना प्रकार के जप, तप, उपवास करते हैं और श्रेष्ठ श्रासन (व्यासगादी) पर बैठ कर पुराण कहते हैं। सप मनुष्य मनमाना बावरण करते हैं अपार अत्याचार कहा नहीं जा सकता ॥५॥ पाते हैं। सभा की प्रति में शुद्ध रहि जप तप व्रत दाना, पाठ है। दो-भये बरनसङ्कर कलि, भिवसेतु सत्र लोग । करहिं पाप पावहिँ दुख, अय रुज सोक बियोग ॥ कलियुग में सब लोग वर्ण सङ्कर (माता और जाति पिता और से उत्पन सन्तान) हो गये और मर्यादा पृथक् हो गई। पाप करते हैं बदले में दुःख, भय, रोग और वियोग का शोक सभा की प्रति में 'भये बरनसर सकल' पाठ है। खुति सम्मत हरिभक्ति-पथ, सज्जुत बिरति बिधेश । तेहि न चलहि नर मोह बस, कल्पहिँ पन्थ अनेक ॥१०॥ वेद मतानुसार वैराग्य और ज्ञान से संयुक्त हरिभक्ति का माग है, मनुष्य उसमें नहीं चालते; अमान पश बहुत से पथों की कल्पना करते हैं ॥१००॥ तोटक-वत्त। बहु दाम सँवारहिँ धाम जती । विषया हरि ली न रही विरती ॥ तपसी धनवन्त दरिष्ट्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही ॥११॥ सन्यासी बहुत धन और घर सजाते हैं, उनमें वैराग्य नहीं रह गया विषयों ने हर