पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७७

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१०६० रामचरित मानस। लिया। तपस्वी धनधान और गृहस्थ दरिद्री होते हैं, हे तात ! कलियुग की लीला कही नहीं जाती है ॥११॥ जो पात गृहस्थों में होनी चाहिये वह तपस्वी सन्यासियों में वर्णन करना 'द्वितीय श्रसङ्गति अलंकार है। सभा की प्रति में विषया हरि लीन भई विरती पोठ है। कुलवन्त निकारहि नारि सत्ती । गृह आनहिं चेरि निबेरि गती। सुत मानहिं मातु पिता तब लौँ। अबलानन दीख नहीं जब लैंौँ ॥१२॥ कुलीन सती स्त्रियों को निकाल लेते हैं, अच्छी चाल को त्याग कर घर में दासी (रस्नेलो) लाते हैं। पुन माता-पिता को तब तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुख नहीं देखते ॥१२॥ सभा की प्रति में 'श्रयला नहि डीठ परी जब लो'.पाठ है। ससुरारि पियारि लगी जब तैं। रिपु रूप कुटुम्ब अये तब तँ.॥ नृप पाप-परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडम्ब प्रजा नितहीं ॥१३॥ जन से ससुराल प्यारी लगी, तब से परिवार के लोग शत्रु रूप हो गये। राजा पाप में तत्पर उनमें धर्म नहीं रह गया, नित्य ही (अन्याय और जोरावरी से ) प्रजा को दण्ड देकर फजीहत करते हैं ॥१३॥ धनवन्त कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥ नहि मान पुरानन्ह बेदहि जो । हरिसेवक सन्त सही कलि सा ॥१४॥ धनवान भलिन (प्राचार भ्रष्ट अधम) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं, ब्राह्मण की पहचान जनेऊ और तपस्वी का चिह्न उघार रहना रह गया। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वही सच्चे सन्त तथा हरिभक्त कहे जाते हैं ॥१४॥ कबि बन्द उदार दुनी न सुनी । गुन दूषक बात न कोपि गुनी ।। कलि बारहिँ बार दुकाल परै । शिनु अन्न दुखी सब लोग मरे ॥१५॥ दुनियाँ में कवियों के झुण्ड देख पड़ते हैं, परन्तु दाता सुनने में नहीं पाते । गुण में दोष लगानेवाले बहुत हैं पर गुणी कोई भी नहीं है । कलियुग में वारम्बार अकाल पड़ता है, सब लोग बिना अन्न के दुखी होकर मरते हैं ॥१५॥ दो-सुनु खगेस कलि कपट हठ, दम्भ द्वेष पाखंड । मान सोह.भारादि लद, व्यापि रहे ब्रांड ।। कागभुशुण्ड कहते हैं-है खगराज सुनिये, कलियुग में कपट, हठ, दम्भ, द्वेष, पाखण्ड,. मान, मोह, मद और काम आदि ब्रह्माण्ड में व्याप रहे हैं । तामस धर्म करहि नर, जप तप मख व्रतः दान । देव न बरषाहिँ परनि पर; बये न जामहि धान ॥१०॥ जप, तप, यक्ष, व्रत, दान आदि धर्म मनुष्य तामसी वृशि से करते हैं। बादल धरती पर पानी नहीं बरसते और बोने से धान नहीं जमते हैं ॥१०॥