पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११७९

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. ११०० रामचरित मानस । कृतजुग श्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग। जो गति होइ सो कलिं हरि, नाम त पावहिं लोग ॥१०॥ सतयुग, नेता, द्वापर में पूजा, यश और योग से जो गति होती है, कलियुग में यही लोग भगवान के नाम से पाते हैं ॥१०॥ सतयुग में योग, त्रेता में यह और छोएर में पूजा यह क्रम है ।दाहा में युगों के नाम क्रम से लेकर उनकी क्रिया वर्णन का क्रम उलट दिया गया, यह विपरीत क्रम 'यथासंभयं शलंकार' है। चौ०-कृसजुग सब जोगी विज्ञानी । करि हरि ध्यान तरहिँ भव प्रानी ॥ नेता विविध जज नर करहीं। प्रभुहि समर्पि करम भव तरहीं ॥१॥ सतयुग में लब प्राणी योगी और विनानी हो कर भगवान का ध्यान करके संसार- समुद्र के पार होते हैं । त्रेता में अनेक प्रकार यक्ष करके मनुष्य प्रभु को कर्मों का समर्पण कर संसार से तरते हैं ॥१॥ द्वापर करि रघुपति पद पूजा । नर अव तरहि उपाय न दूजा । कलिजुग केवल हरि गुन गाहा । शावत नर. पावहिँ भव थाहा ॥२॥ द्वापर में दूसरा उपाय नही, मनुष्य रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके संसारसिन्धु ले पार उतरते हैं । कलियुग में केवल भगवान के गुणों की कथा गान करने से मनुष्य संसार. ‘सागर का थाह पा जाते हैं ॥२॥ कलिजुग जोगन जज्ञ न ज्ञाना । एक अधार राम गुन गाना ॥ 'सब भरोल तजि जो अंज राहिँ । प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥३॥ कलियुग में न योग, म यद और न ज्ञान का पल है, एक मात्र प्राधार रामचन्द्रजी का गुण गान है । सब भरोसा त्याग कर जो रामचन्द्रजी का भजन करते हैं और प्रेम पूर्वक उनके गुण-समूह को गाते हैं ॥३॥ सोइ अव तर कछु संसय नाही । नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥ काल कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य हाहिँ नहिँ पापा ॥४॥ वे ही संसार से तरते हैं इसमें कुछ संदेह नहीं, क्योंकि कलयुग में नाम की महिमा प्रसिद्ध है। कलियुग का एक पवित्र प्रभाव है कि मन में अनुमान किये हुए पुण्यों के फल होते हैं और पाप.नहीं होते ॥४॥ मनशा ले अनुमान किये पुण्यों का फल होना और पाप की इच्छा करने से पाप का न होना, इस.विरोधी वर्णन में 'प्रथम घ्याघात अलंकार' है। यहाँ लोग शङ्कां करते हैं कि क्यो. 'मानस का पुण्य होता है और पाप नहीं ? इस सन्देह के निवारणार्थ अर्थ ही और का और करते हैं - "मानसिक पुण्य और पाप कलि में कुछ नहीं होता, वे अन्य-युगों में होते थे। "