पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तरक बढ़ावइ साखा ॥ अस कहि जपन लगे हरि-नामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥४॥ जो रामचन्द्रजी ने रच रक्खा है वही होगा, तक कर के कौन शास्त्रा बढ़ावे । ऐसा कह कर वे भगवान् का नाम जपने लगे और सती वहाँ गई., जहाँ सुख के धाम स्वामी थे ॥४॥ दो-पुनि पुनि हृदय बिचार करि, धरि सीता कर रूप । आगे होइ चलि पन्थ तेहि, जेहि आवत नर-भूप ॥३२॥ बार बार हृदय में विचार कर सीताजी का रूप धारण किया और जिस रास्ते से मनुष्यों के राजा (रामचन्द्रजी) श्राते थे, उसमें आगे होकर चलीं ॥ ५२ ॥ सतोजी ने सोचा कि इस समय रामचन्द्र जानकी के विरह में व्याकुल हैं, यदि मैं सीता का रूप धारण कर उनके सामने चलूँ तो सहज में परीक्षा हो जायगी । इसलिये अपना असली रूप छिपा कर रामचन्द्रजी को ठगने के लिए सीताजी का रूप बना कर आगे चली, यह युक्ति अलंकार' है। चौ०--लछिमन दीख उमा-कृत-वेषा । चकित मये मम हृदय बिसेषा ॥ कहि न सकत कछु अति गम्भीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥१॥ लक्ष्मणजी ने उमा को कृत्रिम वेष में देखा, उनके हृदयमें बड़ा आश्चर्य और भ्रम हुआ। वे अत्यन्त मतिधीर गम्भीर प्रभु की महिमा ( सर्वज्ञता) को जानते हैं, इसलिए कुछ कह नहीं सकते ॥१॥ आश्चर्य इस बात का हुआ कि ये अकेली वन में कैसे घूम रही हैं । भ्रम-यह हुआ कि किसी कारण से शिवजी ने क्या इनका त्याग तो नहीं कर दिया है, अथवा इन पर कोई गहरी विपत्ति तो नहीं आ पड़ी है ? सती कपट जानेउ सुर-स्वामी। सबदरसी सबअन्तर-जामी ॥ सुमिरत जाहि मिटइ अज्ञाना। सोइ सरबज्ञ राम भगवाना ॥२॥ सब देखनेवाले और सब के हृदय की बात जाननेवाले देवताओं के स्वामी सती के कपट को जान गये। जिनका स्मरण करने से श्रज्ञान मिट जाता है, वही लवज्ञ भगवान् रामचन्द्रजी हैं ॥२॥ सती कीन्ह चह तहउँ दुगऊ । देखहु नारि-सुभाउ-प्रभाऊ । निज-माया-बल हृदय बखानी । बाले बिहँसि राम मृदु-बानी ॥३॥ सती वहाँ भी छिपाव करना चाहती है, स्त्री के स्वभाव की महिमा देखिए । अपनी माया का चल मन में व बान कर रामचन्द्रजी कोमल वाणी से बोले ॥३॥