पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८१

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११०२. रामचिरत-मानस । हे खगराज ! मदारी का किया भीषण कपटजाल उसके सेवक को यह धोखेबाज़ी नहीं होती ॥ दो-हरि मायाकृत दोष गुन, बिनु हरिमजन न जाहि । अजिय राम तजि काम लब, अस बिचारि मन माहि ॥ भगवान की माया के किये हुए दोष-गुण बिना रोमभजन के नहीं जाते। ऐसा मन में विचार कर लब कामों को छोड़ रामचन्द्रजी का भजन कीजिये।। तेहि कलिकाल घरप बहु, बसेउँ अवध बिहगेस । परेउ दुकाल बिपत्ति बा, तब मैं गयउँ बिदेस ॥१०॥ हे पक्षिराज ! उस कलिकाल में बहुत वर्ष तक मैं अयोध्या में रहा । दुर्भिक्ष पड़ा तब विपत्ति वश में परदेश गया ॥१४॥ चौ०-गयेउँ उजेनी सुनु उरगारी । दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥ गये काल कछु सम्पति पाई । तहँ पुनि करउँ सम्भु सेवकाई ॥१॥ हे गरुड़जी । सुनिये, मैं हीन, उदास, दरिद्री और दुखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर सम्पत्ति मिली, फिर वहाँ शिवजी की सेवकाई करने लगा।॥२॥ विप्र एक बैदिक सिवपूजा । करइ सदा तेहि काज न दूजा ॥ परम साधु परमारथ घिन्दक । सम्भु उपासक नहिँ हरिनिन्दक ॥२॥ एक ब्राह्मण वेद की विधि से सदा शिवजी का पूजन करते थे, उन्हें उपासना के सिवाय दूसरा काम नहीं था। वे श्रेष्ठ साधु, परमार्थ के जाननेवाले, शिवजी के भक्त और विष्णु भगवान के निन्दक नही थे॥२॥ तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥ बाहिज नग्न देखि सोहि साँई। बिना पढ़ाव पुत्र की नाई ॥३॥ उनकी सेवा मैं छल-पूर्वक करता था, वे दयालु ब्राह्मण बड़े ही नीति के स्थान थे। हे स्वामिन् ! मुझे वाहर से नन देख कर ब्राह्मण पुत्र के समान पढ़ाते थे ॥३॥ सम्क्षु मन्त्र मोहि द्विजबर दीन्हा । सुन्न उपदेस बिबिध विधि कीन्हा ।' जपउँ मन्त्र सिवमन्दिर जाई । हृदय दम्भ अहमिति अधिकाई ॥४॥ मुझे ब्राह्मण श्रेष्ठ ने शिवमंत्र का उपदेश दिया और नाना प्रकार शुभदाई शिक्षा का वर्णन किया। मैं शिवजी के मन्दिर में जा कर मन्त्र जपता था; परन्तु हृदय में दम्भ और अहंमन्यता बढ़ती जाती थी कि मेरे समान शिवभक कोई नहीं है ॥