पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८२

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। ११०३ दो-मैं खल मलसङ्कल मति, नीचजाति बल-वाह । हरिजन द्विज देखे जरउँ, करउँ बिष्नु कर द्रोह ।। मैं दुष्ट, पाप से भरी बुद्धिवाला, मीच जाति, महानता वश हरि भक्त ब्राह्मणों को देख कर जलता था और विष्णु का द्रोह करता था। से--गुरु नित मोहि प्रबोध, दुखित देखि आचरन मम । माहि उपजइ अलि क्रोध, इम्मिहि नीति कि मावई ॥१०॥ गुरुजी मेरा भाचरण देख कर दुखी होते थे और मुझे नित्य समझाते थे। उनके सम. झाने से मुझे बड़ा कोध उत्पन्न होता था, क्या धमण्डी को नीति अच्छी लगती है। (कदापि नहीं) ॥१०॥ चौ०-एक बार गुरु लीन्ह बोलाई । मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥ सिव सेवा घर फल सुत साई । अबिरल. भगति राम-पद होई ॥१॥ एक घार गुरुजी ने मुझे बुला लिया और मुझ को बहुत तरह से नीति लिखायी। उन्हें ने कहा-हे पुत्र ! शिवजी की सेवा करने का यही फल है कि रामचन्द्रजी के चरणों में लगातार भक्ति उत्पन्न हो ॥१॥ रामहिं भजहिं तात सिव धाता । नर पावर के केतिक बाता। जासु चरन अज सिव अनुरागी । तासु द्रोह सुख घहसि अभागी ॥२॥ हे पुत्र ! रामचन्द्रशी को शिव और ब्रह्मा भजते हैं, तय नीच मनुष्य (सन) की कितनी बात है जिनके चरणों के ग्रमा और शिवजी प्रेमी हैं, अरे प्रभागेत उनका दोही होकर सुख चाहता है ? (पिना हरिभक्ति के यथार्थ सुख कहाँ हैं १ ) ॥२॥ हर कहें हरिसेवक गुरु कहेऊ । सुनि खगनाथ हृदय सम दहेज ॥ अधम जाति में विद्या पाये। भयेउँ जथा अहि दूध पिआये ॥३॥ गुरुजी ने शङ्कर भगवान को हरिभक्त कहा, हे खानाथ ! यह सुन कर मेरा एदय जल उठा । नीच जाति में विद्या पाने से ऐसा हुश्रा जैसा साँप दूध पिलाने से (अधिक जहरीला) झता है ॥३॥ मानी कुटिल कुमाग्य कुजाती । गुरु कर द्रोह करउँ दिन राती । अति दयाल गुरु स्वल्प न क्रोधा। पुनि पुनि मेहि सिखान सुबेधा ॥४॥ अभिमानी, दुष्ट, दुर्भाग्यपाला और खोटी जाति का मैं दिन रात गुरुजी का द्रोह करता . & था। पर गुरुदेव को ज़रा भी क्रोध नहीं, अत्यन्त दया के स्थान मुझे बार बार उत्तम मान सिखाते थे।