पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८३

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। ११०४ रामचरित मानसं । जेहि लीच बड़ाई पावा । सो प्रथमहिं हठि. ताहि नसावा ॥ धूम अनलसम्मद सुनु भाई । तेहि बुझाव- घन · पदवी पाई ॥५॥ नीच जिससे बड़ाई पाता है वह हठ कर के पहले उसी को नसाता है। हे भाई! देखो धुआँ भाग से उत्पन्न होता है, पर मेष की पदवी पाने पर उसे बुझा देता है ॥५॥ रज मग परी निरादर रहई । सब कर पदेप्रहार नित सहई । मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥६॥ धूलि रास्ते में अनादर से पड़ी रहती है और नित्य सब के पाँवों का चोट सहती है वायु उसे उड़ा कर ऊँचे करती है तो पहले वह उसको भर गन्दा करती है, फिर राजाओं की आँख और किरीटों में पड़ती है ॥६॥ सभा की प्रति मैं वृप किरीट पुनि नयनन्ह परई, पाठ है। सुनु खगपति अस समुझि प्रसङ्गा। बुध नहिँ करहिँ अधम कर सका। कबि कोबिद गावहि असि नीती। खल सन कलह न मल नहिँ प्रीती ॥७॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं--हे पक्षिराज! सुनिये, इस बात को समझ कर बुद्धिमान मीचों का साथ नहीं करते । कवि और विद्वान ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्टों से कलह अच्छा नहीं और न प्रीति ही अच्छी है ॥७॥ सभा की प्रति में 'सुनु खग खगपति समुझि प्रसङ्गार पाठ है। उदासीन नित रहिय गुसाँई । खल परिहरिय स्वान की नाँई ॥ मैं खल हृदय कपट कुटिलाई । गुरु हित कहहिँ न माहि सुहाई ॥८॥ हे स्वामिन् ! खलों से लदा निरपेक्ष (न मित्रता, न शत्रुता) रह कर उन्हें कुत्ते 'तरह त्याग देना चाहिये । मैं दुष्ट-दृश्य, कपट और कुटिलता से भरा बुना गुरुजी हित की बात कहते थे, पर वह मुझे नहीं अच्छी लगती थी 10 हरमन्दिर, जपत रहे, 'सिव नाम । गुरु आयउ अभिमान तँ, उठि नहिं कीन्ह प्रनाम । एक बार मैं शङ्करजी के मन्दिर में शिवजी का नाम जपता था। उस समय गुरुजी भाये, मैं अभिमान से उन्हें उठ कर प्रणाम नहीं किया। सो दयाल नहिँ कहेउ कछु, उर न रोष लवलेस । अति अघ गुरु-अपमानता, सहि नहिँ सके महेस ॥१०६॥ वे दयानिधान थे कुछ नहीं कहा और न उनके हृदय में लवलेस मात्र क्रोध हुमा । पर गुरु के अपमान करने का महापाप शिवजी नहीं सह सके.॥ १०६॥ सभा की प्रति में 'गुरु दयाल नहिँ कहेउ कछु' पाठ है। दो०-एक