पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८४

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । २१११५ चौo-मन्दिर माँझ सई नस बानी। रे हतभाग्य अज्ञ अभिमानी ॥ जदापि तव गुरु के नहि क्रोधा । अतिदयालचित सख्यक बोधा॥ मन्दिर में आकाशवाणी हुई कि रे हतभाग्य, मूर्ख, अभिमानी यधपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है, वे बड़े दयालु चित्त, और यथार्थ ज्ञानवाले हैं ॥१॥ वाणी का आधार घोलनेवाला है और पाणी प्राधेय है। मन्दिर में पिना आधार के शब्द का रजित होना प्रथम विशेष अलंकार है। तदपि साप लठ देइहउँ ताही । नीति बिरोध सुहाइ न मोही । जौं नहि दंड करउँ खल तारा । मष्ट होइ खुतिमारग मोरा ॥२॥ तो भी अरे मूर्ख ! तुम को मैं शाप दूंगा, क्योंकि सदाचार का विरोध मुझे नहीं अच्छा लगता।रे दुष्ट ! यदि तेरा दहन कऊँगा तो मेरा वेद-मार्ग भ्रष्ट होगा ॥२॥ जे सठ गुरु सन इरिषा करहीं । रौरव नरक कोदि जुग परहौं । त्रिजग-जानि पुनि घरहिँ सरीरा । अयुत जनम भरि पवहिँ पीरा॥३॥ जो मूर्ख गुरु से ईर्षा करते हैं, वे करोड़ों युग पर्यन्त गैरव नरक में पड़ते हैं। फिर तिर्यग्योनि (पशु पक्षी मादि) में शरीर धारण करते हैं और दस हज़ार जन्म तक दुष्य पाते हैं दो-हाहाकार बैठि रहेसि अजगर इव पापी । सर्प होहि खल मल मति व्यापी । महा बिटप कोटर मह जाई । रहु अधमाधम अध-गति पाई ngi अरे पापी, दुष्ट ! गुरु को देख कर अजगर के समान बैठा रह गया, तेरी धुद्धि पाप से भरी है तू सर्प होगा। रे नीचातिनीच शुद्ध ! नीच गति पा कर पड़े वृक्ष के खोदरे में आ कर रहेगा कीन्ह गुरु, दारुन सुनि लिव साप । कम्पित माहि बिलोकि अति, उर उपजा परिताप शिवजी का भीषण शाप सुन कर गुरुजी ने हाहाकार किया। मुझे काँपता हुआ देख उनके मन में बड़ा सन्ताप उत्पन्न हुआ। करि दंडवत सप्रेम द्विज, सिव सनमुख कर जारि । बिनय करस गदगद गिरा, समुझि घोर गति मारि॥१०॥ वे प्रामणदेवता शिवजी के सामने हाथ जोड़ कर प्रेम के साथ दण्डवत करके मेरी मयं कर गति समझ कर गद्गद वाणी से विनती करने लगे ॥१०७॥