पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११०७ कलातीत कल्याण कालान्तकारी । सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ॥ चिदानन्दसन्दाह मोहापहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मधारी ॥६॥ कलाओं से परे, कल्याण और कल्पान्त के करनेवाले, सदो सज्जनों को प्रानन्ददाता, त्रिपुर दैत्य के बैरी, चैतन्य रूप, श्रानन्द के राशि, ज्ञान के हरनेवाले और कामदेव के शत्रु प्रभु शङ्करजी मुझ पर प्रसव हो, मलम हूजिये ॥६॥ न यावद्दुमानाथ पादारविन्दम् । अजन्तीहलोके परे वा नराणाम् ॥ न तावत्सुखं शान्तिसन्तापनाशम् । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिषासम् ॥७॥ जब तक उमानाथ के चरण-कमलों का मनुष्य भजन नहीं करते तब तक इस लोक में या परलोक में सुख-शान्ति नहीं पाते और न दुःखों का नाश होता है । हे सब प्राणियों के अन्तः करण में बसनेवाले प्रभो! असा इजिये ॥७॥ न जानामि योग. जपं नैव पूजाम् । नताहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ॥ जराजन्मदुः खापतातघ्यमानम् । प्रभा पाहि आपन्नमामीशशम्मा । न मैं योग जानता हूँ और न जप वा पूजा जानता हूँ, हे शम्भु भगवान ! सदा सर्वदा मैं भोप को नमस्कार करता है। हे प्रभो, ईश, सम्भो ! बुढ़ाई, जन्म और दुःख की अधिकता से जलते हुए शरण में प्राप्त जान कर मेरी रक्षा कीजिये ॥८॥ बिप्र अनुराग । अनुष्टुप-वृत्त। रुद्राष्टकमिद प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये। ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥१॥ यह रुद्राष्टक (आठ पत्तों का स्तोत्र ) ब्राह्मण ने शिवजी को प्रसव करने के लिये कहा। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेंगे, उन पर शङ्कर जी प्रसन्न होंगे ॥१॥ दो०-सुनि बिनती सब सिव, देखि पुनि मन्दिर नमबानी, भइ विजबर बरमाँग । सर्वक्ष शिवजी विनती सुन कर और ब्राह्मण का प्रेम देख कर प्रसन्न हुए । फिर मन्दिर में माकाशवाणी हुई कि-हे विप्र श्रेष्ठ ! वर माँगो। सभा की प्रति में 'मन्दिर नभ वानी भई, द्विजवर अव वर माँगु' पाठ है। जौँ प्रसन्न प्रभु मोपर, नाथ दीन पर नेहु । निज पद भगति देइ प्रभु, पुनि दूसर बर देहु ।। हे स्वामिन् । यदि मुझ पर आप प्रसन्न हैं और इस दोन पर स्नेह है तो-हे प्रभो! पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिये। सभा की प्रति में 'निज पद-पदा भगति पद पुनि दूसर बर वेड' पाठ है।