पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११८८

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १२० रामभक्ति उत्पन्न होने के लिये अयोध्यापुरी में जन्म लेना एक ही कारण पर्याप्त था, साथ ही शिरजी की कृपा दूसरा प्रबल ऐतु उपस्थित होना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार है। सुनु मम बचन सत्य अब माई । हरि तोषन-ब्रत विज सेवकाई ॥ अब जनि करहि विप्र अपमाना। जानेसु सन्त अनन्त समाना ॥६॥ हे भाई! अब मेरे सत्य वचन को सुन, रामचन्द्रजी को प्रसन्न करने का प्रत (पवित्र कर्म) ब्राह्मण की सेवा करना है। शव नाक्षण का अपमान मत करना, सन्तों को भगवान के समान ही समझना ॥६॥ समा की प्रति में 'सत्य अति भाई पाठ है। इन्द्रकुलिस मम सूल बिसाला । कालदंड हरिचक्र कराला जो इन्ह कर मारा नहि मरई । बिन वोह-पावक सो जरई ॥७॥ इन्द्र के वज, मेरे विशाल त्रिशूला, यमराज के दण्ड और विष्णु के विकराल चक्र ले, जो इनके मारे नहीं मरता वह ब्राह्मण के बैर रूपी अग्नि में जल जाता है ॥७॥ जो बन त्रिशूल यमदण्ड और हरिचक्र के मारे नहीं मरता, वह सामान्य जीव नहीं है। महान देवों के समान आदरणीय है, किन्तु विप्र-द्रोह रूपी भाग में उसको जलनेवाला कहकर अयोग्य ठहराना और इस सम्बन्ध से विप्र-द्वेष की अतिशय भीषणता प्रकट करना सम्बन्धा- तिशयोक्ति अलंकार' है। अस विवेक राखेहु मन माहीं । तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं । अउरउ एक आसिषा मारी । अप्रतिहत-गत होइहि तोरी॥८ ऐसा विचार मन में रखना तो तुमको संसार में कुछ भी दुलंभ न रहेगा। एक और भी मेरा आशीर्वाद है कि तुम्हारी गति कहीं रुकनेवाली न होगी अर्थात् इच्छानुसार लोकों में तथा सभी स्थानों में जा सकोगे। दो-सुनि सिव बचन हरषि गुरु, एवमस्तु इति भाखि । मोहि प्रबोधि गयउ गृह, सम्भु-चरन उर राखि ॥ शिवजी के वचन सुन गुरुजी प्रसन्न हो कर बोले कि यह ऐसा ही होगा। मुझे प्रेरित काल बिन्धिगिरि, जाइ भयउँ मैं ब्याल। पुनि समझा कर और शङ्करजी के चरणों को हदय में रख कर वे घर को गये। प्रयास बिनु सो तनु, तजेउँ गये कछु काल ॥ काल की प्रेरणा से मैं विन्ध्याचल पर जा कर सपं हुआ, फिर कुछ काल चीतने पर बिना परिश्रम ही उस शरीर को त्याग दिया।