पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९

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रामचरित मानस । जोरि पानि प्रभु कोन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू । कहेउ बहारि कहाँ वृषकेतू । विपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू men प्रभु रामचन्द्रजी ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और पिता के सहित अपना नाम लिया। फिर बोले कि शिवजी कहाँ हैं ?.आप असली किस कारण वन में फिरती हैं ॥४॥ सती ने अपना हाल छिपाने के लिए सीताजी. का रूप लिया था, वह रामचन्द्रजी जान जान गये । प्रणाम कर पिता सहित अपना नाम कह कर परिचय दिया 'पिहित अलंकार' है । पिता का नाम लेने में व्यसनामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि मैं राजा दशरथजी का पुत्र राम , शिष नहीं। वन में अकेली यो फिरती हो ? इस वाक्य में यह व्यह है कि मैं इस जगल में इस लिए घूम रहा हूँ कि जानकी को किसी राक्षस ने हर लिया है। पर आप अकेली क्यों घूमती हैं, क्या शङ्करजी को किसी ने चुराया है ? दो-राम-बचन-मृदु गूढ़ सुनि, उपजा अति सङ्कोच । सती सभीत महेस पहि, चली हृदय बड़ सेाच ॥३॥ रामचन्द्रजी के कोमल और गूढ़ वचनों को सुन कर बड़ी लज्जा उत्पन्न हुई। सती भय- भीत होकर महेश के पास चली, उनके हृदय में भारी सोच हुश्रा ॥ ५३॥ चौ०-मैं सङ्कर कर कहा न माना । निज अज्ञान राम पर आना ॥ जाइ उतर अब देइहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन-दाहा ॥१॥ मैंने शिवजी का कहना नहीं माना और अपनी नासमझी रामचन्द्रजी में आरोप की । अब जा कर क्या उत्तर दूंगी ? हृदय में बड़ी भीषण जलन उत्पन्न हुई ॥१॥ जाना रोम सती दुख पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ।। सती दीख कौतुक मग जाता। आगे राम सहित श्री माता ॥२॥ रामचन्द्रजी समझ गये कि सत्ती को दुःण हुआ है, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट रूप से सूचित किया। सती ने यह खेल देखा कि श्रागे रास्ते में सीताजी और भाई लदमण के सहित रामचन्द्रजी चले जा रहे हैं ॥ २ ॥ शङ्का-जब सतीजी रामचन्द्रजी को पहचान गई और लज्जासे भयभीत हो शोक के साथ शिवजी के पास चली, तब रामचन्द्रजी ने अपना प्रभाव क्यों दिखाया ? उत्तर-रामचन्द्रजी अन्तर्यामी हैं, वे सती के मन का सन्देह जानते है कि उनके हृदय में इस बात की प्रबल शहर है "ब्रह्म जो व्यापक विरज अज, अकल अनीह अभेद' । सो कि देह धरि होहनर, जाहि न जानत बेद" उसका अभी पूरा समाधान नहीं हुआ, क्योंकि केवल सीताजी के रुप में सती को पहचान लेना संशय निम्ल होने के लिए काफी नहीं है। कितने ही योगी तपी ऐसा कर सकते हैं। इसलिए अपना अनन्त प्रभाव पूर्णरूप से प्रत्यक्ष दिखाया।