पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९०

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । ११११ कहु खगेस अस कवन अभागी । खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी । प्रेम मगन मेहि कछु न सुहाई । हारेउ पिता पढ़ाई पढ़ाई ॥४॥ हे पक्षिराज! कहिये ऐसा कौन भाभागा है जो कामधेनु को छोड़ कर गदही की सेवा करेगा। प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे दूसरी विधा कुछ नहीं सुहाती था, पिताजी पढ़ाते पढ़ाते हार गये (पर मैं ने उनकी शिक्षा ग्रहण न की ) wen भये काल बल जब पितु माता । मैं बन गयउँ भजन जननाता। जहें जहँ बिपिन सुनीस्वर पावौँ । आलम जाइ जोइ लिए नावौँ ॥५॥ जब माता-पिता कालवश परलोकवासी हो गये, तब मैं जनों के रक्षा रामचन्द्रजी का भजन करने वन में गया। वन में जहाँ जहाँ मुनीश्वरों का श्राधम पाता था वहाँ जा जा कर मस्तक नवाता था ॥५॥ यूझउँ तिन्हहिं राम गुन गाहा । कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा । सुनत फिरउँ हरिगुन अनुबादा । अव्याहत्त-गति स प्रसादा ॥६॥ उनसे रामचन्द्रजी के गुणों का वृचान्त पुछता था, हे खगनाथ ! वे कहते थे मैं प्रसन्नता से सुनता था। इस तरह भगवान का गुणानुवाद सुनता फिरता था, शिवजी की कृपा से मेरी गति धे रोक थी (जहाँ इच्छा करता वहीं जा पहुँचत्तो था) छूटी त्रिविधि ईपना गाढ़ी । एक लालसो उर अति बाढ़ी ॥ राम-चरन-यारिज जब देखौं । तब निज जलाम सुफल करि लेखौं ॥७॥ (पुत्र, धन, जन ) तीनों प्रकार की गहरी इच्छायें छूट गई,श्य में एक बड़ी लालसा बढ़ी कि जब रामचन्द्रजी के चरण-कमलों के दर्शन कर तब अपने जन्म को सफल करके जेहि पूछउँ सोइ अनि अस कहई । ईस्वर सर्व भूत-सय अहई । निर्गुन मत नहि माहि सुहाई । सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई १८ जिससे मैं पूछता वही मुनि ऐसा कहते थे कि ईश्वर समस्त जीवों में वर्तमान है। परन्तु निगुप-मत मुझे नहीं सुहाता था, मेरे हृदय में सगुण-ब्रह्म पर अधिक प्रीति थी | के बचन सुरति करि, रोमचरन मन लाग । रघुपति जस गांवत फिरउँ, छन छन नव अनुराग। गुरुजी के वचन स्मरण करके मेरो मन रामचन्द्रजी के चरणों में लग गया ! क्षण क्षण नवीन प्रेम से रघुनाथजी का यश गान करता फिरता था। मान ॥७॥ दो-