पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९१

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रामचरित मानस । } 1 । मेरु सिखर बट छाया, मुलि लोमस आसीन । देखि चरन सिर नायउँ, बचन कहेउँ अति दीन । हिमालय पहाड़ की चोटी पर बड़ वृक्ष की छाँह में सोमशमुनि विराजमान थे। उन्हें देख कर मैंने चरण में मस्तक नवाया और अत्यन्त दोनता से वचन कहा। 'सुनि सम बचन बिनीत मृदु, मुनि कृपाल खगराज । मोहि सादर पूछत अये, द्विज आयउ केहि काज ॥ मेरे नन्नता युक्त कोमल वचन सुन कर खगराज ! कृपा के स्थान मुनि ने मुझ से. श्रादर के साथ पूछा कि हे ब्राह्मण ! तुम किस कार्य के लिये श्राये हो ? तब मैं कहा कृपानिधि, तुम्ह सर्बज्ञ सुजान । सगुन ब्रल अवराधन, माहि कहहु भगवान ॥११॥ मैंने कहा-हे कृपानिधे ! आप सब के शाता और प्रवीण हैं, हे भगवान ! सगुण- ब्रह्म की उपासना सुझ से कहिये ॥ १० ॥ सभा की प्रति में 'सगुण ब्रह्म श्राराधना' पाठ है चौ०-तब मुलीस रघुपति गुन गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा ॥ ब्रह्मज्ञान रत मुनि विज्ञानी । माहि परम अधिकारी जोनी ॥१॥ हे पक्षिराज ! तय मुनिराज ने आदर के साथ कुछ रघुनाथजी के गुणों के वृत्तान्त कहे । वे विज्ञानी मुनि ब्रह्मशान में तत्पर मुझे अति श्रेष्ठ अधिकारी जान कर ॥ १ ॥ लागे करन ब्रह्म उपदेखा। अज अद्वैत अगुन हृदयेसा ॥ अंकल अलीह अनाम अरूपा । अनुमवगम्य अखंड अनूपा ॥२॥ मुनिशान का उपदेश करने लगे कि वह परमात्मा अजन्मा, अद्वितीय, निर्गुण, हृदय का ... स्वामी, अखण्ड, इच्छा, नाम और रूप रहित, अविच्छिन्न, अनुपम और अनुभव से जानने योग्य है ॥२॥ मन गोतीत असल अबिनासी । निर्विकार : निरवधि सुखरासी । सो तै ताहि ताहि नहि भेदा । बारि बीच इव गावहि बेदा ॥३॥ मन और इन्द्रियों से परे, निर्मल, नाश रहित, निर्दोष, असीम और सुख की राशि है । तू वही (अ ) है उसले और तुझसे भेद नहीं है, वेद कहते हैं कि (ईश्वर और जीव का अन्तर) पानी और लहर के समान है ॥३॥ बिबिध लाँति लुनि माहि समुझावा । निर्गुन मतमम हृदय न आवा । पुनि मैं कहेउ नाइ पद सीसा । सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥४॥ अनेक प्रकार मुनि ने मुझे समझाया; पर निर्गुण मत मेरे हृदय में नहीं आया । फिर मैं. ने चरणों में सिर नवा कर कहा.-हे.मुनीश्वर ! संगुण ब्रह्म की आराधना कहिये ॥४॥ .