पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९४

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सम्मल सोपान, उत्तरकाण्ड । १११५ एहि बिधि अमित जुगुति मन गुनऊँ। मुनि उपदेख न सादर सुनऊँ । पुनि पुनि सगुन पच्छ में रोपा । सन्न मुनि बाले बचन सकोपा॥६॥ इस तरह बहुत ली युक्ति मन में विचारता था और मुनि का उपदेश श्रादर के साथ नहीं सुनता था । बार बार मैं ने लगुण का पक्ष भारोपण किया, तब मुनि शोध से भर कर वचन वाले ॥६॥ मूढ़ परम सिख देउ न भालसि । उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥ सत्य बचन बिस्वास न करहो । बायस इव सबही ते डरही ॥७॥ अरे मूर्ख ! मैं अत्युत्तम शिक्षा देता हूँ उसको नहीं मानता और बहुत ला उत्तर प्रत्युत्तर करता है। सच्चे वचन पर विस्वास नहीं करता, कौए की तरह सभी से डरता है ? ॥७॥ सठ स्वपच्छ तब हृदय विसाला । सपदि होहि पच्छी जंडाला ॥ लीन्ह साप मैं सीस चढ़ाई । नहि कछु भय न दीनता आई १८॥ अरे दुष्ट! तेरे मन में अपनी बात का पड़ा भारी हठ है, तू तुरन्त ( अभी ) चाण्डाल पक्षी हो जा। मैं ने शाप को सिर पर चढ़ा लिया, उससे मुझे कुछ भय नहीं हुआ और न दीनता आई दो०--तुरत भयउँ मैं काग तब, पुनि सुनिपद सिर नाइ। सुमिरि राम रघुबंसमनि, हरषित चलेउँ उड़ाइ । मैं तुरन्त कोया हुश्रा फिर मुनि के चरणों में सिर नवा कर और रघुकुल के मणि रामचन्द्रजी का स्मरण करके प्रसन्नता से उड़ कर चला। पार्वती जी ने प्रश्न किया कि मुनि को क्रोध आ गया, पर भुशुण्डीजी को क्रोध नहीं आया इसका क्या कारण है ? उमा जे राम चरन रत, बिगत काम निज प्रक्षु मय देखहिँ जगत, केहि सन कहिँ बिरोध ॥११२।। शिवजी कहते हैं-हे उमा! जो काम, मद और काध से रहित होकर रामचन्द्रजी के चरणों में संलग्न हैं, वे जगत को अपने स्वामी मय देखते हैं फिर विरोध किससे करें ।।११२॥ रामभक्त किसी से, विरोध नहीं रखते, इस बात को हेतु सूचक सिद्धान्त से पुष्ट करना 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। खगेस नहिं कछु । उर प्रेरक रघुबंस-विभूषन ।। कृपासिन्धु मुनि मति करि भारी । लीन्ही प्रेम परीछामारी ॥१॥ हे पक्षिराज! सुनिये, अषि का कुछ दोष नहीं, क्योंकि दृदय में प्रेरणा करने वाले रघु. नायजी हैं । रघुकुल के भूषण कपासागर रामचन्द्र जी ने मुनि को. बुद्धि को भोली करके मेरे प्रेम की परीक्षा ली ॥१॥ तय मद क्रोध। । चौ०-सुनु रिषि दूषन