पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९६

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड । १११७ निज कर कमल परसि मम सीखा। हरषित आशिष दीन्हि मुनीसा ॥ रामभगति अबिरल उर तारे । बसिहि सदा प्रसाद अब मारा अपने कमल-हाथों को मेरे सिर पर फेर मुनीश्वर ने प्रसन्न हो कर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी रुपा से तुम्हारे हृदय में सदा लगातार रामभक्ति बसेगी ॥८॥ दो सदा राम प्रियहोब तुम्ह, सुभगुन-भवन अमान । कामरूप इच्छामरन, ज्ञान बिराग निधान । तुम सदा रामचनमूजी को प्रिय और शुभगुणों के स्थान तथा निरभिमान होगे। मनमाना रूप धारण कर सकोगे, इच्छा करने पर मरोगे (अन्यथा तुम्हें कॉल न व्यापेगा) और शान वैराग्य के भण्डार होंगे। जेहि आलम तुम्ह असब पुलि, सुमिरत श्रीभगवन्त । "व्यापिहि तह न अविचा, जोजन एक प्रजन्त ॥११॥ फिर तुम भगवान रामचन्द्रजी का स्मरण करते हुए जिस आश्रम में बलोगे, वहाँ एक योजन पर्यन्त प्रविधा-माया न व्यापेगी ॥११॥ चौ०-कालकरसगुनदोषसुभाऊ । कछु दुख तुम्हहिँ न ब्यापिहि काऊ ॥ राम रहस्य ललित निधिनाना । गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥१॥ काल, कर्म और स्वभाव के गुण-दोष का दुःख तुम को कभी कुछ न होगा। नाना प्रकार रामचन्द्रजी के सुन्दर रहस्य छिपे हुए और प्रत्यक्ष पुराणों के इतिहास ॥१॥ बिनु स्त्रम तुम्ह जानन सब खाऊ । नित नब नेह राम-पद होऊ । जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरिप्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ॥२॥ वह लय तुम चिना परिश्रम जानोगे और रामचन्द्रजी के चरण में मित्य नया स्नेह होगा। मन में जो इच्छा करोगे भगवान की कृपा से कुछ दुर्लभ नहीं पर्थात् सारी कामनाएँ सहज में पूरी होगी ॥२॥ सुनि मुनि आसिष सुनु मति धीरा । ब्रह्मगिरा भइ गगन गंभीरा ॥ एवमस्तु तक बच मुनिज्ञानी। यह मम भगत करम मन बानी॥३॥ हे मतिधीर! मुनिये, मुनि के आशीर्वाद को सुन कर आकाश से गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानीमुनि ! तुमने जो कहा ऐसा ही हो, क्योंकि यह कर्म, मन और वाणी से मेरा भक है ॥३॥ सुनि नभगिरा हरष सोहि भयऊ । प्रेम मगन सब संसय गयऊ करि बिनती मुनि आयक्षु पाई। पद-सरोज पुनि पुनि सिर नाई॥४॥ आकाशवाणी सुन कर मुझे हर्ष हुआ, सब सन्देह दूर हो गया और मैं प्रेम में मग्न हुधा । विनती करके मुनि की भाशा पा कर और बार बार बरण कमलों में सिर नवापा ॥an