पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९७

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सरीरा ॥६॥ १११८ रामचरित मानस । हरष सहित एहि आलम आयौँ । प्रभु प्रसाद दुर्लम घर पायौँ । इहाँ बसत माहि सुनु खगईसा । बीते कलप सात अरु बीसा ॥५॥ मानन्द-पूर्वक इल आश्रम में आया, प्रभु रामचन्द्रजी की कृपा से दुर्लभ पर मिला । हे पक्षिराज ! सुनिये, यहाँ बसते मुझे सात और वीस (सत्ताइस) कल्प बीत गये ॥५॥ कल्प की व्याख्या लङ्काकाण्ड के श्रादि में प्रथम दोहा के नीचे की टिप्पणी देखो। करउँ सदा रघुपति गुन गाना । सादर सुनहिँ बिहङ्ग सुजाना जब जला अवधपुरी रघुबीरा । धरहिँ भगत-हित मनुज सदा रघुनाथजी के गुणों का गान करता हूँ, उसको श्रादर के साथ चतुर पक्षी सुनते हैं। जय जवा रघुनाथजी सकों के कल्याण के लिये अयोध्यापुरी में मनुष्य शरीर धरते हैं ॥६॥ सब तब जाइ रामपुर रहऊँ । सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ । पुनि उर राखि राम सिसु रूपा । निज आसम आवउँ खगभूपा ॥७॥ तब तब जा कर मैं रामचन्द्रजी की पुरी में रहता हूँ बाललीला देख कर आनन्दित होता हूँ। फिर रामचन्द्रजी का पालक रूप हृदय में रख कर, हे ! खगराज ! अपने आभम को लौट आता हूँ ॥७॥ कथा साल मैं तुम्हहिँ सुनाई ! काग-देह जेहि कारन पाई ॥ कहेउँ लात सब प्रस्न तुम्हारी । रामभगति महिमा अति भारी ॥८॥ जिस कारण मैं कौए का शरीर पाया वह सारी कथा श्रापको सुनाई । हे तात ! भाप की समस्त प्रश्नावली और रामभक्ति की बहुत बड़ी महिमा मैं ने कहीं || दो-तात यह तन सोहि प्रिय, भयउ राम-पद नेह । निज प्रभु दरसन पायउँ, गयउ सकल सन्देह । इससे यह शरीर सुसे प्यारा है कि इसी देह में रामचन्द्रजी के चरणों में स्नेह हुआ। अपने स्वामी का दर्शन पाया और सम्पूर्ण सन्देह दूर हो गया। प्रगति पच्छ हठ करि रहेउँ, दोन्हि महारिषि साप । मुनि दुर्लभ बर पायउँ, देखहु भजन प्रताप ॥११४॥ मैं भक्तिपक्ष का हठ करता ही रहा, जिससे महाऋषि ने शाप दिया। भजन का प्रताप देखिये कि जो वर मुनियों को दुर्लभ है वह वर पाया ॥११॥ हठ करना दोष है, पर भक्तिपक्ष के हठ को गुण रूप मान कर उसकी इच्छा करना 'अनुज्ञा अलंकार' है यहाँ गरुड़जी के चारों प्रश्नों का उत्तर पूरा हो गया। चौ०-ज असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ज्ञान हेतु सम करही । ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी । खाजत आकफिरहिँ पय लागी॥१॥ जो ऐसी भक्ति को जान कर छोड़ देते हैं और केवल शान के लिए परिश्रम करते हैं। वे मूर्ख घर में कामधेनु को त्याग कर दूध के लिये मदार का पेड़ हूँढ़ते फिरते हैं ॥१॥