पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/११९८

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सप्तम सोपान, उत्तरकाण्ड। सुनु खगेस हरिभगति बिहाई । जे सुख चाहहि आन उपाई ॥ सठ महासिन्धु बिनु तरनी । पैरि पार चाहिँ जड़ करनी ॥२॥ हे पक्षिराज! सुनिये, भगवान की भक्ति को छोड़ कर जो दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख यिना नाय के महासागर को अपनी जड़ करनी से तैर कर पार होना चाहते हैं ॥२॥ सुनि भुसुंडि के बचन भवानी । बोलेड गरुड़ हरधि मृदु बानी ॥ तव प्रसाद प्रभु मम उर माहौँ । संसय सोक माह अल नाहीं ॥३॥ शिवजी कहते हैं- भवानी ! भुशुण्डी के वचन सुन कर गएड प्रसन्न होकर कोमल पाणी से योले । हे स्वामिन् ! शाप की कृपा से मेरे इदय में सन्देह, शोक, अज्ञान और भ्रम सुनेउँ पुनीत राम गुन प्रामा। तुम्हरी कृपा लहउँ बिस्लामा ॥ एक बात प्रभु पूछउँ तोही । कहहु बुझाइ छपानिधि मोही un रामचन्द्रजी के प्रविन गुणे को सुना और आपकी कृपा से विचार पाया। हे रुपा. निधान प्रभो ! मैं पाप से एक बात पूछता हूँ, वह मुझे समझा फर कहिये ॥४॥ कहहिँ सन्त मुनि बेद पुराना । नहि कछु दुर्लभ ज्ञान सन्माना सोइ मुनि तुम्हसन कहेउ गोसाँई । नहिं आदरेहु भगति की माँई॥३॥ घेद, पुराण, सन्त और मुनि कहते हैं कि शान के समान दुर्लभ पदार्थ दूसरा कुछ नहीं है। हे स्वामिन् । वही शान लोमशजी ने बाप से कहा पर भक्ति की तरह आप ने उसका भादर नहीं किया ॥५॥ ज्ञानहिं भगतिहि अन्तर केता । सकल कहहु प्रभु कृपानिकेता ॥ सुनि उरगारि बचन सुख माना । सादर बोलेड काग सुजाना ॥६॥ हे कृपानिधान स्वामिन् । छान और भक्ति से कितना अन्तर है ? यह समस्त कहिये । इस प्रकार गरुड़ के वचन सुन कर चतुर कागभुशुण्ड प्रसन्न होकर आदर से बोले ॥ ६ ॥ भगतिहि ज्ञानहि नहिँ कछु भेदा । उभय हरहि भवसम्भव खेदा ॥ नाथ मुनीस कहहिँ कछु अन्तर । सावधान सोउ सुनु बिहज बर ॥७॥ भक्ति और शान में कुछ भेद नहीं है, दोनों संसार से उत्पन्न क्लेश को हरते हैं। हे, माथ । मुनीश्वर लोग कुछ अन्तर कहते हैं, पक्षिश्रेष्ठ । उसको सावधान होकर सुनिये ॥ ७ ॥ ज्ञान विराग जोग विज्ञाना । ये सब पुरुष सुनहु हरिजानां ॥ पुरुष प्रताप प्रबल सम भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती ॥८॥ हे हरिबाइन ! सुनिये, ज्ञान वैराग्य योग और विज्ञान ये सब पुरुषवर्ग हैं। पुरुष सब तरह प्रतापमान और पक्षी होता है, अबला (स्त्री) सहज ही मूर्ख जाति की निर्व होती है।